रविवार, 18 अप्रैल 2010

काल!

काल! तू बड़ा अधम है।

वह वैधव्य,
कितना भव्य।
एकांत कि महत्ता,
स्वयं की सत्ता।
रिश्ते और नाते,
सब पुरातन बातें।
सहारा नहीं, न कोई बंधन,
झूठे आदर्श, मिथ्या स्वावलंबन।
भ्रम का एक जाल,
बुनता है काल।
आती नहीं फिर,
हो जाती स्थिर।
बना देता हर ध्वनि को,
वह अ-श्रव्य।

काल! तू बड़ा अधम है।

न कोई सवेरा,
मेरा या तेरा।
लगता पुकार,
या करता साकार।
उन प्यारे सपनों को,
नेह भरे वचनों को।
जिन्हें ढाला था हमने,
मैंने और तुमने।
अपने जीवन में,
प्रणय के इस घन में।
बरस कर बिखर गया जो,
एक आघात में छितर गया जो।
बस पीड़ा का आभास,
खंडित सब प्रयास।
सहजता से किया विस्मृत,
वह कर्त्तव्य।

काल! तू बड़ा अधम है।

पग-पग तू बढ़ते जा,
सोपान नए चढ़ते जा।
स्वयं से भागे जा,
जा तू और आगे जा।
न तिमिर, न प्रकाश,
अधकचरा विश्वास।
वह सिन्दूरी अभिलाषा,
मन अब भी प्यासा।
बढ़ाये थे चरण जहाँ,
नीरव एक वन वहां।
जहाँ सन्नाटा छाया है,
ना पहले कोई आया है।
निर्मित की अपनी,
एकाकी नगरी।
क्या सोचा यही था?
क्या यह सही था?
क्या तेरा सदा से था,
वह गंतव्य?

काल! तू बड़ा अधम है।