रविवार, 10 नवंबर 2013

वन्दिता

क्षीर  नीर  से  ले   कर  ज्यों  कोई   हंस  हो  पीता,
ऐसे सम्बल ले कर तुमसे मैं जीवन अपना जीता।

क्यूँ न कहूँ सागरिका तुमको, मिलें जहाँ गुण-सरिता,

पतझर  में  सावन  ला  दो,  हे  स्नेह-स्वरूपा वनिता।

जीवन के क्षण युग से लगे, ऐसा  भी एक काल है बीता,

वह  पल  भी  है  मैंने  भोगा  जब स्वयं ही से  मैं भीता।

बरसाया अनुराग बहुत सा, बन कर मेरी अनुप्रीता,

मैं  ही  संचय  कर ना पाया, हृदयकोश  चिर  रीता।

रहा नहीं मधुमास ,हाय! विलग हुयी मुझसे मेरी मधुमीता,

अहो!  क्या  कर  सके  राम भी,चली  गयीं  थी जब  सीता ?

तिस पर भी  उर से  लगा रखे मस्तक पर बन रज -शोभिता,
प्रेम-गुच्छ  का  अर्पण  फीका, प्रिये! तुम  हो  मेरी  वन्दिता।


गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

तेरी रज़ा

जो मैंने सोचे  भी ना  थे  कभी  उन गुनाहों की सज़ा दी उसने।
मेरी आँखों को जलाते ऐसे फुरकत के शोलों को हवा दी उसने।

अमानत  के  मानिन्द दी थी जिन्हें अपने नसीबों की पोटली,
मेरे    पापों      गठरी     समझ,     गंगा  में   बहा  दी   उसने।

जिन पन्नों पर लिखी थी इबारत कुछ अनकही दास्तानों की,
वो   किताबें   मेरी    नज़रों   से   छुपा  कर  जला  दी  उसने।

मै   मानता   था  रहनुमाई   को  हाथ  उसका   आएगा  ज़रूर,
तूफान में डोले कोई पत्ता,  मेरी याद कुछ यूँ बिसरा दी उसने।

कलम  पे  चोट  होती  और  काफ़िये  पे  रोक  लेती जिंदगानी,
एक  सन्नाटा  सा  था  पसरा,  और  शायरी  फ़ना  थी  उसमे।

और मुश्किल ये  भी कि आंसू कागज़ पे अलफ़ाज़ छोड़ते नहीं,
बदल   गयी   है  अब   मेरी  रचना, सियाही  कज़ा  की  उसने। 

वक़्त  बदलता  है,  रवायतें,    चालोचलन,  दस्तूर  बदलते  हैं,
अपने   हाथों   से   खैंची   लकीरों   की  ये   वजह  दी   उसने।

इस  ढलान  पर कोई  कदम से कदम  मिला कर चलेगा  साथ,
ये  सोच  कर जो हमराह था मेरा, अपनी रफ़्तार बढ़ा दी उसने। 

मैं फिर भी पकड़ लूँगा उसे, ये सच उसका खुदा भी जानता है,
रंज बस इतना है कि तेरी भी रज़ा थी जब ये खता की उसने।

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

निर्णयवान

निर्णय एक जटिल एवं विषम प्रक्रिया है? संभवतः यह एक सरल एवं सम प्रक्रिया है? निश्चय ही निर्णय का कारक विभिन्न व्यक्तियों हेतु भिन्न-भिन्न अनुभव ले कर आयेगा तथा व्यक्ति इन्ही कारकों में स्वयं के लिए संतोष की खोज कर आत्मतुष्ट होने की घोषणा करेगा। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी हैं कि यह जाना जाये कि निर्णय के इस तट पर व्यक्ति स्वतः के संवेग से पहुंचा अथवा प्रयास की लहरों से? इसी तथ्य का संज्ञान व्यक्ति के लिए उस निर्णय की प्रक्रिया के स्वभाव एवं उसकी आवश्यकता की सार्थकता की पुष्टि करेगा।
 
यह जान लेना आवश्यक है कि महत्त्व के बिंदु क्या हैं? क्या क्षणिक वैचारिक मतभेद किसी विषय के प्रति आपकी सैद्धांतिक सहमति को प्रभावित कर सकते हैं? क्या परिस्थिति-जन्य ऐसे विवाद जो विचारों की गवेषणा हेतु बौद्धिक स्तर पर ही सीमित हैं, आपके कार्य की दिशा का विलोपन  कर सकते हैं?  क्या किसी विशेष विषय पर विचारों का वह आदान-प्रदान जो काल-खंड में स्वतः सन्दर्भ-वंचित हो कर पतित हो जायेगा, आपके जीवन के मंतव्य में स्थायी परिवर्तन ला देगा? क्या लोकतान्त्रिक परम्पराओं के आधीन हमारी इस आधुनिक युग-व्यवस्था में, हमारी सनातन शाश्त्रार्थ की भावना इतनी क्षीण हो गयी हैं कि व्यक्ति में सहनशीलता अपने निम्न स्तर पर है?  क्या विपरीत विचारों के प्रति हमारी सहिष्णुता खंडित हो चुकी है?
 
यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि हम अपने निर्णयों को विचार-विश्लेषण पर आधारित न कर व्यक्ति-विश्लेषण पर केन्द्रित करेंगे I नीति कहती है कि विचारवान ही निर्णय ले सकते हैं। अर्थात यह निर्णय-प्रक्रिया विचार-प्रणाली की उपज होनी चहिये। यहीं इस प्रक्रिया का मूल उपस्थित है. विचार जटिल भी हो सकते हैं एवं सरल भी।
 
परन्तु विचार उत्पन्न कैसे होते हैं? व्यक्ति ही विचारों का जनक है। अतः समता या विषमता व्यक्ति में ही विद्द्यमान है। व्यक्ति ने ही स्वयं को जटिलता अथवा सरलता से जोड़ रखा है और वही उसके निर्णय का आधार बनता है। सारगर्भित तथ्य यह है कि निर्णय की इस प्रक्रिया के उपरांत व्यक्ति अपनी जटिलता को और सहेजता है तथा अपने निर्णयों को परिस्थियों एवं घटना-विशेष पर आरोपित कर देता है। वर्तमान युग के मानव स्वभाव का यह एक विलक्षण बिंदु है। वह सरलता को नहीं सहेजता। वह जटिलता को आत्मसात करता है एवं क्लांत होता है। 
 
स्व-केन्द्रण व्यक्ति के व्यवहारगत आयामों में निरंतर जटिलता रोपित करता चलता है और इससे प्रभावित हो कर वह समाज से अपने प्रति मात्र प्रशष्ति की अपेक्षा रखता है। वैचारिक भिन्नता उसकी ऐसी किसी भी आकांक्षा पर कुठाराघात करती है और उसकी तार्किक शक्ति को बलहीन करती है। अतार्किक निर्णय सदैव विशमताजनक होते हैं और ये एक अंत का आरम्भ दर्शाते हैं।