मंगलवार, 25 मार्च 2014

आलिंगन

यह  कैसा  पूजन, आराधन  जो  छू  न  सके  तनिक  भी मन को?
वह अर्चन, वंदन क्या, जो जिह्वा पर सीमित कर दे सुमिरन को?
उस  तप  की  आंच  का  क्या,  कंचन  न  करे  जो  आचरण  को?
व्यर्थ   वह  दर्शन -  नमन,  जो  झंकृत  न  कर  पाये  चेतन  को। 

बहुत    हुआ,  अब    बंद   करो   इस   कपट   ढोंग   प्रदर्शन  को। 
मिथ्या    चीत्कार   को,     प्रस्तर   पर   मस्तक   के  घर्षण  को। 
मूल्यहीन,    बलहीन     किया   अन्तर्मन    के    अभ्यर्थन   को। 
अब    कौन    करे    उद्घोष,    करे    आमंत्रित   परिवर्तन   को?

प्रस्फुरित   करेगी   आकुल   पुकार,   नेपथ्य  के   उद्बोधन  को,
जिसकी  भी  है    सत्य   शपथ,   वह  प्रस्तुत  सागर-मंथन  को। 
विष  का  क्या,   हर   सकेगा  वह  किसी  के  आत्म-संवेदन को?
अमृत     भी     क्या    देगा,    वैरागी    मन    के   चिंतन   को?

प्रस्तुत    हो    वह,    जो    है   तैयार     समग्र     समर्पण    को,
जीवन - प्रत्यंचा      पर     साधे     श्वासों     के    स्पंदन    को। 
उत्कंठित   हो   यदि  नव - ईश्वर  के   स्वागत-अभिनन्दन  को,
फिर    बढ़    कर   स्वीकार  करो    अस्तित्व   के  आलिंगन  को। 

सोमवार, 24 मार्च 2014

क्रांति

नव-युग   में  विचारधारा  को  नित  संशोधन  चाहिये,
प्रवाह  के  संग  बहने   का  मुक्त  अनुमोदन  चाहिये। 
इसी  भीड़  में  मिल  जायेंगे  नाम  तुम्हे  मतवालों के,
विश्वास  कर  सके तुम पर वो ऐसा सम्बोधन चाहिये। 
 
भरा   हुआ   है   भावों  से,  इसे   ना  प्रलोभन  चाहिये,
निर्मल  मन  वालों  को  भी क्या  कोई शोधन चाहिये?
अन्तस्तल  के  अंधेरों  में  धवल  कांति  बिखरा  देंगे,
सूत्रधार  बनेंगे  परिवर्तन के,  स्पष्ट प्रयोजन चाहिये। 

अतुलित  इन  क्षमताओं  का  जग  को  दोहन चाहिये,
निष्ठाओं  की  बलिवेदी  पर  तनिक न  रोदन चाहिये।   
फूंको   मंतर  ऐसा  यौवन   के  इस  उत्प्रेरक  बल  पर,
मुग्ध  हो,   करे  अनुसरण;  दिव्य सम्बोधन  चाहिये।

अन्तर्मन   हो   आंदोलित   ऐसा   उद्बोधन   चाहिये,
प्रज्ञा  के  तारों   को  छू  दे,   गहन   प्रबोधन   चाहिए। 
बिखरे   हुये   इन  फूलों  से  एक  पुष्पाहार  बनाना  है,
फिर  से  गौतम  को  लाना  है  हमें  शुद्धोधन  चाहिये।