बुधवार, 4 नवंबर 2015

.... जी चाहता है

आज सब हार जाने को जी चाहता है।
गुल नहीं खार पाने को जी चाहता है।

सब तरफ बिखरा दूँ जो भी है संवरा हुआ,
समंदर  का ज्वार होने को जी चाहता है।

जबसे  संभाले  हैं  पाँव  बहते  जा  रहे हैं,
दरिया नहीं कनार होने को जी चाहता है।

मुझे  ले  चले  और गुमराह  कर  दे  कहीं,
सुलेमानी कालीन उड़ाने को जी चाहता है।

चुप रहने की आदत मैंने भी डाल ली अब,
लफ़्ज़ों  के  पार  रहने  को  जी  चाहता है।

जो सुलगता हो एहसासों का धुआं जिगर में,
सरापा  इक तूफ़ान उठाने को जी चाहता है।

अब सन्नाटे से कर ली हैं मोहब्बत मैंने,
तेरी आवाज़ भूल जाने को जी चाहता है।

तूने रुख मिलाया तो आँखें चौंधियाती रहीं,
मेरा अब पलकें खोलने  को  जी चाहता है।

शुकराना पढता हूँ कि तलब ख़त्म कर दी तूने,
इक सीधी सी ज़िन्दगी जीने को जी चाहता है।
   

रविवार, 15 मार्च 2015

ऐसी कोई शिक़ायत नहीं...


ऐसा   नहीं   कि  हमें   तुमसे  कोई  शिक़ायत  नहीं।  
पर इक इस बात से खफा होना हमारी रवायत नहीं।  

ज़िन्दगी  का  सफ़र  क्या?  चंद  रोज़  में कट जायेगा,
और ऐसा भी नहीं कि हम पर किसी की इनायत नहीं।  

हर  सिम्त  खा कर ठोकरें भी,  देंगे  ना  बददुआ कभी,
बेगैरत  भी  जी  लेंगे,  तुमसे  ऐसी कोई अदावत नहीं।  

झुक कर चलने वाला ही उठा कर सीने से लगाया जाता है,
तन   कर   चलते   रहने   में   कहीं   कोई   महारत   नहीं।  

रंगीन   ख्वाबों    का   काँच  तो  चटक    कर   टूटता  ही  है,
और इस काँच के टुकड़े से घायल होना कोई नज़ाकत नहीं।  

औरों  को  पिछाड़  कर  आगे  निकलना एक बात है,
किसी  का  सीना  चाक कर दो,  ये तो शराफ़त नहीं।  

जब  उरूज़  पर हो तो भूल जाओ, मुफलिसी में याद करो,
इसे  कोई  और  नाम  देना,  यक़ीनन  ये  मोहब्बत नहीं।  

अपने  ज़ख्मों को नुमाइश का सामां मत बनाओ ऐ शायर,
हर  लफ्ज़  जो  करे  बयां दर्द-ए-दिल  तो ये सदाकत नहीं।  


शनिवार, 7 मार्च 2015

मंथन


सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।  

जब मन में तेरे भेद भरा था, फिर न्याय का क्यूँ उल्लेख किया?
अपने  मन  के  सम्बल  हेतु क्यों  मेरा  झूठा  अभिषेक  किया? 
अपना अधिकार ही  माँगा था,  इसमें क्या कुछ अतिरेक किया?
 हमने तुम पर विश्वास किया, और तुमने आरोप प्रत्येक दिया।  
ऐसे में भी तत्पर हैं हम, तुमसे अपना सम्बन्ध अटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जिसको    चाहा    तुमने   प्रसाद    दिया,
मधु नहीं,  अमृत - कण का स्वाद  दिया,
विष ढाला प्याले में और आर्तनाद  दिया. 
हमको   जीवन  भर  का  अवसाद  दिया,
कितना   सुन्दर गढ़ा  गया इस नाट्य मंच का पटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

मन  को मथना,  सोच - विचार  सब धोखा है,
जो नियत किया तुमने, उसको  कब रोका है? 
मिथ्या   वचनों   का    यह    खेल  अनोखा है,
दोष विधाता को दे दो, क्या अद्धभुत मौका है।  
खुद को पावन प्रस्तुत करना कितना सहज सरल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जब देव - अदेव का भेद किया  तब  चिंतन को क्या शेष बचा?
गुण-अवगुण जब निश्चित हैं, तब मंथन से क्या सन्देश रचा?
जब  पहले  से  बलिहारी  हो,  फिर क्यों भरमाते हो वेश सजा?
अमृत-घट उनको ही दे दो , मेरे पलड़े में तुम दो विद्वेश बढ़ा।  
भाव मथे जिस ह्रदय में तुमने वह पत्थर है, मंदराचल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

इस बार होली में.......


पुराने   उन   सारे  वादों  को,
खट्टी - मीठी सबरी यादों को,
उजले दिन, सुहानी रातों को,
कही-अनकही सारी बातों को,
इस  बार  होली  में  सब  कर  दिया  दहन मैंने।    

जीवन में  जो भी अब अभिव्यक्त  हो,
शुष्क   हो,  आर्द्र, शीतल  या तप्त  हो,
भग्न हो, बिखर जाये कि विन्यस्त हो,
यह मेरा प्रारब्ध , तुम इससे मुक्त हो।  
इस   बार   होली   को  एकला   किया  वहन मैंने।  

जीवन    के   विराट  से  कुछ  कण बीन लाने हैं,
ईश्वर   भी   राह   रोके,  वह  क्षण छीन लाने हैं,
साहस, संकल्प, संयम, जीवन के तीन माने हैं, 
काल की गति वही जो हम कर्म में लीन ठाने हैं। 
इस  बार  होली में  भाग्य  का  कर  दिया ज्वलन मैंने।  

विधान  स्वयं  गढ़ेंगे,  त्रिकाल हम पढ़ेंगे,
चौसर  का  खेल  बंद, अंधता नहीं सहेंगे,
तेग  पर   धार  देंगे,  भविष्य नया रचेंगे,
    उऋण होने हेतु ही जीवन पथ पर चलेंगे।    
इस  बार  होली  पर  यह  व्रत  किया  वरण  मैंने।  

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

आजमाइश-ए-दिल


मेरे दर्द को  इतना न बढ़ाओ कि एहसास रहे ही नहीं।  
यूँ भी ना करो कि मैं ढूँढू ही नहीं दवा-ए-दर्द भी  कहीं।  

मेरी बेचारगी पर तरस खाओ, ये नहीं चाहता हूँ मैं,
मगर मेरी मोहब्बत की शिद्दत को समझो तो सही।  

झूठी तसल्ली ना चाहिये, ये बात बिलकुल साफ़ है , 
रक़ीबों  से  अफ़साने  गढ़ो, ये  कतई  बर्दाश्त नहीं।  

मुझसे ख़तोकिताबत नहीं, दो बोल प्यार के भी बंद,
फिर तो  हो  चुका, ऐसे  तो  मोहब्बत बढ़ने से रही। 

जो इकरार  रखो मेरी  बातों  से तो मेरे संग आओ तुम,
जो  बरक़रार रखो दूरियां  तो  फिर विसाल होगा कहीं?

यूँ नासमझ भी ना हो जो इल्तेजा-ए-ज़ुबां ना समझो,
बरास्ता मुझसे ही गुज़रो, मेरी बस एक दरकार यही। 

कोई  फैसला  न  किया है अब तक, यही एक उम्मीद है,
डरता हूँ मुझे धीरे-धीरे दूर करने की ये तरक़ीब तो नहीं।  

मैं दूर  हो  नहीं  सकता, यह  बात जान लो तुम ठीक से सनम, 
निबाह  मुझसे ही होगा, आजमाइश-ए-दिल चाहे कर लो कहीं।   


सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

शुभकामना


नव  प्रवाह  आया,  लाया नयी  धारा।  
नभ  में  चमका  है  सुदूर  एक  तारा।  
न विजित हुआ कभी, तम सदा हारा।  
सरल   यह   सत्य  जाने  जग  सारा।  

नव प्रभात देगी  नया एक उजियारा। 
नव क्रांति  तोड़ेगी  भ्रान्ति  की कारा।  
द्युति को भी कभी किसी ने बिसारा? 
स्वर्णांकन ने सदा  दीप्ति को उभारा। 

नव  प्रपात  फूटेंगे अनेकों जल धारा। 
शीतल   होगा   हर   जलता  अंगारा।  
तपस्या  का  फल  मीठा और न्यारा। 
अनुग्रहीत   हो  ही  सबने  स्वीकारा।  

नव प्रयास   देंगे  अक्षुण्ड़ रस धारा।   
यह व्रत  एकमेव  मस्तक पर वारा। 
दिशाओं  ने पुनः  एक बार  पुकारा। 
 तत्पर  पथिक  ने पथ  को निहारा।  

नव पग  उठाये  जो, वह कभी ना हारा।
तिनके तक ने  दिया डूबते को  सहारा। 
संकल्प की  शक्ति ने साहस विस्तारा।  
शुभ  हो जीवन   आपका  और हमारा। 

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

रौशनी का हरकारा


मशालें     हाथों     में    और   दिलों   में   अँधेरा  है। 
दीयों    की    पनाहों   में    काला   सा   एक घेरा है ।  

सुनते     थे     कि    अँधेरा     रौशनी   से   डरता  है,
हैरां    हूँ    ये    देख   कर   चिराग    तले   अँधेरा है।  

सूरत-ए-हाल  बदलेंगे जब  जागेगा  अंदर का इन्सां,
बड़े   गहरे  तक  वहाँ  उस   ढीठ  नींद  का बसेरा है।   

आँधियाँ बुझा  ना  दे कहीं  रौशनी के कहारों की लौ, 
उस लौ पे हाथ मिला के  रखो वो कल का  सवेरा है।  

मेरी चाहत की आवाज़ को पहचान लेना वक़्त रहते,
मै   फ़ना   हो  जाऊँगा,  जहाँ  तन्हाइयों  का  डेरा है।  

बदलाव  के  हरकारे बाँटेंगे ज्यों पौ फटने का संदेसा , 
दिये आफताब बन कर खिल उठेंगे ये भरोसा मेरा है।  

इम्तिहान  मत  लेना  तुम  कलम  के  सिपाही  का,
वो   द   से   दवात   भी   है   और   ठ   से   ठठेरा है। 

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

सोलमेट !


अरी दईया  देखो ये ढूंढ रहे हैं अपना  सोलमेट !

पुराना जो   प्रेमी   है  वो  तो  है बस  एक  फ्रेंड। 

चला    नया    देखो   यह    कैसा  अजब   ट्रेंड। 
अबकी   बारी  लगता  है  ये  सबको  लेंगे लपेट।  
इसलिये  खुल कर  सभी  से कर रहे हैं गल-भेट। 
अरी  दईया देखो ये  ढूंढ रहे हैं अपना सोलमेट !

शादी और  डेटिंग  की  हर  साइट की कर ली रेकी। 
व्हाट्सएप्प  और फेसबुक  पर पाती भी ढेरों लेखी। 
इश्तिहारों  से चाँप  रखा है इन्होने पूरा  इन्टरनेट।   
और खोल दिये  हैं  भैया  दिल में आने के सारे गेट।  
अरी  दईया  देखो  ये  ढूंढ  रहे  हैं अपना  सोलमेट !

कम्बोडिया  का   हो  या  कि  कोई   म्यांमार का।  
बंगाल  का  छैला  हो, या  हो  रसिया  बिहार का। 
इतावली,   इज़रायली,  इस्ताम्बूली  भी  चलेगा।
मूड  में हैं अपने  और कुछ लगते  भी हैं डेस्पीरेट।     
रामा  हो  रामा,  ये   ढूंढ  रहे  हैं अपना  सोलमेट!

होली   का   रंग   है,  अपना   अड़बैंगा   ढंग  है।  
हॉर्लिक्स   की   जगह   आज   दूध   में भंग  है।  
बिगुल   में   मारो   फूँक   तो  बजता   मृदंग है।  
बस   करो   भइया   और   न  करो  मटियामेट।  
चलो  तुम  हमई  का बना  लो अपना सोलमेट !

खिलाइये  गुझिया,  नमकपारा,  पापड़   हमको  भरपेट। 

कांजी का बड़ा तो परोसिये, भरिये हमारा वाला भी प्लेट।   
आपही  के संग, खेले  हैं सब रंग; आ गये हम सब समेट।   
अपर  ही  रह  जायेगा  और   पूरा  सोल  देंगे  हम  चहेट। 
ज़रा कुछ  दिन  तो बनाइये  हमको अपने सोल का मेट !

फ्रेंड आ  गये   हैं  देखिये, इनको  मत  मार्क  करिये  लेट।
इंडियन टाइम  वाले  हैँ,  ज़रा कर लीजिये आप थोड़ा वेट।     
त्वम  शरणम्  गच्छामी , यह   दिया  है  लेटेस्ट  अपडेट।   
संभलिए, देखिये गड़बड़ा ना जाये कहीं आपका एस्टीमेट।  
लेडीज़ एंड जेंटलमेन! हेल्पिये फाइंडने में इनको सोलमेट !

अरी   दईया   देखो   ये  ढूंढ   रहे  हैं  अपना  सोलमेट !

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

पथ और पथिक


मै पथिक नहीं मै तो पथ हूँ।  

जीवन   की  राहों  पर  राही  तो  मिलते   जाते हैं।  
कुछ  खुद से  ही आते हैं,  कुछ को हम ले आते हैं।  
कुछ  पल हेतु   कोई, कुछ  सुदूर  साथ निभाते हैं।  
हल्की हो या कि गहरी सब छाप छोड़ कर जाते हैं।  

पर तुम यह सोचो पंथी किसके संग शपथ लूँ?
मै पथिक नहीं मै तो पथ हूँ।  

अलि  का  झुण्ड कली  पर तो  सदा से रहता आया है।  
अपने   शब्दों के  गुंजन  से  उसका  मन  भरमाया है।  
सींचा जिस जल की धारा ने उसने ही प्रेम निभाया है। 
निहित धरा में सच्चा प्रेमी कलि को पुष्प बनाया है।  

यौवनाकर्षण भ्रमरों का, पर अपनी मिट्टी से अटल तू।  
मै पथिक नहीं मै तो पथ हूँ।  

उड़ते  पंछी   ठाँव  देख  कर  सुस्ताने  रुक  जाते हैं।  
देवी का  गाँव  देख  कर  दस्यु   भी  शीश  नवाते हैं।  
अमराई  की   छाँव  देख कर  प्यासे  ताप मिटाते हैं। 
मेहँदी   भरे    पाँव  देख  कर   लोभ   सवाँरे जाते हैं।
  
पुण्य फलित कब होता हैं इसका कुछ निर्धारण कर तू।  
मै पथिक नहीं मै तो पथ हूँ।  

पथ  पर  सुमन - बेल  बिखरेगी,  कंटक  भी  कुछ  आएंगे।  
अंधड़   और  वर्षा  जब  होगी  कुछ   धूल - पंक  छा जायेंगे।  
पथ  शीतल  करते  विटप  भी  देखो  सूरज में  कुम्हलायेंगे।  
पुलिन हो पथ पर या कि रेत हो, तेरे  पग का भार  उठायेंगे।    

पथ  पर तू  विश्वास  जमा,  मत  पथिकों  को  वर  तू। 
मै पथिक नहीं मै तो पथ हूँ।  

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

हरि इच्छा


मैं  प्रस्तुत  हूँ  जैसी  भी  हो  अब  परीक्षा। 
जीवन - रण में  तत्पर  हूँ  ले  पूर्ण  दीक्षा। 
जय वरण करूंगा अस्वीकार सारी भिक्षा।  
विश्वास अखंड है मेरा धारूँगा हरि इच्छा।  

ऐसा भी क्या ? जो वांछित  हो  कर  भी  प्राप्य नहीं?
जीवन में संगीत ना  हो, कदापि मुझे स्वीकार्य नहीं।   
मेरी वाणी में ओज है यह रोदन का कोई काव्य नहीं।  
मेरे गीतों को हर ले,  यह किंचित भी सम्भाव्य नहीं।  

सत्य  पराजित  होगा ?   क्या  यह  ऐसा  युग  आया हैं ?
शशि को देख निशा में,  दिनकर को किसने बिसराया है ?
मार्तण्ड  की   किरणों  से   खद्योत  कभी  लड़  पाया है ?
रश्मिरथी भानु के सम्मुख, छिन्न तारों तक की माया है।  

 मैं नहीं प्रस्तर सा,  मुझमे  धड़कता है ह्रदय।  
चंद आघात न कर सकते कुछ मेरे भाव क्षय।  
मेरे खड्ग पर धार नयी, चिर नूतन मेरा वय।  
अश्वमेध का यज्ञ है ये,  नहीं रुकेगा मेरा हय। 

यह    घोष   है  संग्राम   का,  बज   गयी   रणभेरी।  
यह  स्वयंवर  है  यदि तो  विजय निश्चित है मेरी। 
एक लकीर प्रभा की मिटा देती है कालरात्रि घनेरी।  
मन  में  विश्वास अटल  है जो  फिर हो कैसी देरी ?

व्रत मान लिया, रण ठान लिया, यह जीवन  मैंने बलिदान किया।    
मछली  की आँख को देखा  और  परछाईं से कुछ  अनुमान लिया।    
अपने संकल्पों को परखा मैंने,  फिर  देव  तुम्हारा  ध्यान  किया।  
प्रत्यंचा  पर  डाला  शर  को  और  लक्ष्य का अपने संधान  किया।  

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

प्रेम

प्रेम धार है,
प्रेम सार है,
ओमकार है,
करतार है। 

प्रेम है पूजा,
कोई न दूजा,
सिवा प्रिय के,
कोई न सूझा। 

प्रेम सजल है,
प्रेम अ-जल है,
पति के हेतु,
यह निर्जल है।  

प्रेम अयास है,
प्रेम रास है।  
निशि-दिन 
एक सुवास है।  

प्रेम हार है?
प्रेम खार है?
रुग्ण पुकार
व चीत्कार है?

प्रेम शमित है,
और भ्रमित है,
जिसने किया न 
अर्पित चित्त है।  

प्रेम कँवल है,
प्रेम धवल है,
यह निर्मल है,
अति उज्जवल है। 

प्रेम अनल है,
या शीतल है?
पूछो उसको जो 
प्रेम विह्वल है।  

प्रेम भक्ति है,
प्रेम शक्ति है।  
कल भी था ये,
और सम्प्रति है।  

प्रेम सुस्मित है, 
तुम्हे विदित है. 
मेरा तुमको 
प्रेम नमित है।   

मुझको तू कुछ जान सखे!

किस भाँति है मेरा प्रेम तुझे यह बात तू किंचित जान सखे ! 

प्रेम  -  विटप  पर  आकांक्षा     के  पुष्प  फहरते।  
हर   पंखड़ी  में   अनगित   नेह   भाव   मचलते।    
नील,  पीत, हरित, रक्ताभ   सकल  रंग उभरते।  
नाना  भावों   को  स्पंदित और  मुखरित  करते।
बलिहारी  सारी   सुषमा  ज्योँ  कर  रही   प्रेम  प्रदान सखे !
इस  भाँति है  मेरा प्रेम  तुझे  यह बात अटल तू जान सखे !  

अम्बर  में  श्यामल  वारिद ले मृदुल  वारि कण फिरता है।  
चहुँ  दिसि  प्रेम की बरखा  करने  पागल हो - हो घिरता है। 
कितनों  के  मन के  भावों  के  अनुकूल रूप धर  तिरता है।  
हर प्रेमी के नयनों को उसके प्रियतम का चेहरा  दिखता है।  
कर सकता यह कोई शब्द व्यक्त? इस बात को तू  पहचान सखे !
इस   भाँति   है   मेरा  प्रेम  तुझे  यह  बात  अटल  तू  जान  सखे !

नदियों की  धारा  का  संगम  कुछ  तो  बात  बताता  है।  
अर्पण, न्योछावर  के  बाद  बचा  कहाँ  कुछ  रह पाता है?
एक  धार  हो कर  जब  संगम, नद  का  प्रवाह बढ़ाता है। 
तट पर रह कर कौन भला तब पुण्य अपना बिसराता है?
मध्य  धार  रह  कर  देने पर ही बढ़ता अर्घ्य का मान सखे !
इस  भाँति  है  मेरा  प्रेम  तुझे यह बात अटल तू जान सखे !

पयोधि  की  जलराशि को  जब  शशि अपना  भाल दिखाता है। 
लहरों    का    उत्साह     स्वयं   ही   कई    गुना   बढ़ जाता है।  
निर्जन पड़े किनारों को आ  सागर   सजीव,  नम कर जाता है। 
नीर तीर से वापस जाता,  तब क्या चन्द्र कुछ रोष जताता  है?
आना, जाना, उठना,  गिरना सब गति जग की है रख ध्यान सखे !
इस   भाँति   है   मेरा  प्रेम   तुझे  यह  बात  अटल  तू  जान  सखे !

ह्रदय   ह्रदय  से  बात  कर    रहा  संदेसा  यह    पहचान सखे !
यूँ ही ना मिल गये हम-तुम, यह फलित योग का प्रमाण सखे !
गात  दो  और  प्राण  एक,  इस  भाव  का  धर  कुछ  भान सखे !
परिपूर्ण प्रेम से  पात्र  हमारा,  अवकाश  का  क्या  स्थान  सखे !
तुझको  अर्पण  हैं  भाव  समस्त  यह  बात  पूर्णतः  जान सखे !
इस  भाँति  है  मेरा  प्रेम   तुझे  यह  बात  अटल तू  जान  सखे !

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

सच्चा प्रीतम


मिथ्या  है वह  भाव  जिसे  खुल  कर समझाना पड़ता हो।  
भावहीन  रह जाना अच्छा जो झूठे ही इठलाना पड़ता हो।  
कैसा  है  यह प्रेम सखे !  जो शब्दों में बतलाना पड़ता हो ?
कैसा  वह  बंधन  जो  भौतिकता  में दिखलाना पड़ता हो?

देखो प्रेम-दीप की दीप्ति प्रिये, वह भीतर-भीतर जलता है। 
यह ज्वाला  देती जब ऊष्मा, तब  ही  तो कुन्दन तपता है।  
यह  रश्मि  दिखे ना जो, मतलब  आँखों पर पट्टी बाँधी है।  
ऐसी  ज्वाला  का क्या? जिसको जीते हल्की सी आँधी है।

ऐसे  निर्झर  की धार  प्रेम, जो फूटे स्वतः स्फूर्त अनायास।
व्यभिचार कहूँगा उसको, जो सोच समझ कर हो सप्रयास। 
हृदयांचल    से  बहती   सरिता,   प्रीति  की  यह  रीति है।    
गुणा,  भाग  और  जोड़,  घटाना  संबंधों की  राजनीती है।

मन   में   झांको,  मत लो आलम्बन - आडम्बर की आड़।  
चरितार्थ   हुयी  कहावत  देखो  कि  -  'खेत खा रही बाड़'।     
क्या यही छुपा था अंदर में? निष्क्रिय, शांत, शिथिल, सुप्त?
वासनाओं  का लावा फूटा,  हो कर उद्वेलित और उन्मुक्त?

उलाहना सरल है देना, किससे क्या हो सका प्रेम - डगर में?
कठिन राह है, दुरूह मार्ग है, संकरी गलियां प्रेम - नगर में। 
कालजन्य   प्रश्नों  की  दुविधा , किसको  मन  में वर लो ?
सच्चा प्रीतम खोजो? या अपने प्रियतम को सच्चा कर लो।