भावहीन रह जाना अच्छा जो झूठे ही इठलाना पड़ता हो।
कैसा है यह प्रेम सखे ! जो शब्दों में बतलाना पड़ता हो ?
कैसा वह बंधन जो भौतिकता में दिखलाना पड़ता हो?
देखो प्रेम-दीप की दीप्ति प्रिये, वह भीतर-भीतर जलता है।
यह ज्वाला देती जब ऊष्मा, तब ही तो कुन्दन तपता है।
यह रश्मि दिखे ना जो, मतलब आँखों पर पट्टी बाँधी है।
ऐसी ज्वाला का क्या? जिसको जीते हल्की सी आँधी है।
ऐसे निर्झर की धार प्रेम, जो फूटे स्वतः स्फूर्त अनायास।
व्यभिचार कहूँगा उसको, जो सोच समझ कर हो सप्रयास।
हृदयांचल से बहती सरिता, प्रीति की यह रीति है।
गुणा, भाग और जोड़, घटाना संबंधों की राजनीती है।
मन में झांको, मत लो आलम्बन - आडम्बर की आड़।
चरितार्थ हुयी कहावत देखो कि - 'खेत खा रही बाड़'।
क्या यही छुपा था अंदर में? निष्क्रिय, शांत, शिथिल, सुप्त?
वासनाओं का लावा फूटा, हो कर उद्वेलित और उन्मुक्त?
उलाहना सरल है देना, किससे क्या हो सका प्रेम - डगर में?
कठिन राह है, दुरूह मार्ग है, संकरी गलियां प्रेम - नगर में।
कालजन्य प्रश्नों की दुविधा , किसको मन में वर लो ?
सच्चा प्रीतम खोजो? या अपने प्रियतम को सच्चा कर लो।
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