सोमवार, 18 जनवरी 2010

आशा..

तूने ऐसे इसे तराशा है,
स्वरहीन प्रणय की भाषा है,
बलुका में हैं चित्र उकेरे,
करतल ध्वनि की आशा है?

हारी हुयी एक प्रत्याशा है,
खंडित-भंजित हर आशा है,
ढाला हमने स्वयं ही जिनको,
उन विपदाओं ने नाशा है।

जीवन संघर्षों की अभिलाषा है,
क्रूर नयी यह परिभाषा है,
एक रक्तबीज है प्रतिस्पर्धा,
और संहार युद्ध की भाषा है।

हर पल में एक निराशा है,
उससे निकली शत-आशा है,
चौरस्ते की चौपड़ पर, हाथ तेरे
नव-जीवन का नव-पासा है।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

मकर संक्रांति !!

मकर संक्रांति!
पर्व सूर्य का।
सूर्य का उदय तो ठीक,
पर अस्त किसका?
यदि उदय है,
तो
अस्त अवश्यंभावी है।
संभवतः,
संभावनाओं का उदय
और उनका ही अस्त।
जन्म-मृत्यु,
दिन-रात,
उत्थान-पतन,
सब उदय और
अस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व संभावनाओं का।
धूमिल पड़ती आशाओं का,
अज्ञात परिणामों का।
एक निर्निमेष गवेषणा
अनंत भविष्य में।
खोज,
एक गवाक्ष की।
जो,
दृष्टिगोचर करे
भविष्य को चक्षुओं के सामने;
अथवा
दे अंतर्दृष्टि,
जो करे अंकित मानस पटल पर,
चित्र समाधान के।
दे शक्ति
विवेचन की,
चिंतन की,
मनन की।
हा !
लगता नहीं ध्यान।
बाहर तो विदित है,
भीतर भी मनुष्य
व्यस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व समर्पण का।
यह सूर्य का
समर्पण ही तो है।
सर्वत्र किया प्रकाश,
स्वयं को जला कर।
वो
पग-पग
बढ़ रहा
ब्रम्हांड के अंधकार में।
किन्तु,
निरंतर छोड़ रहा
किरन आलोक की।
सब कुछ
निर्माता की कल्पना के अनुरूप
सु-विन्यस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व उद्देष्यों की पूर्ति का।
सूर्य की भांति
सत्य के आत्मसात का।
प्राप्ति का,
पूर्णता का,
समागम का,
संगम का।
बंध तोड़ कर भावनाओं के,
विलीन कर,
निहित कर,
समाहित कर।

सत्य के प्रवाह में,
अर्पित कर
स्वयं को,
समक्ष विधाता के।
तू तो निमित्त मात्र है,
किसी ध्येय का।
कर सबल स्वयं को इतना,
हों ध्येय पूर्ण समस्त।
अन्यथा क्या जीवन?
सब उद्देष्य
ध्वस्त ही तो हैं।

मकर संक्रांति!
पर्व प्रकाश का।
प्रदीप्त कर स्वयं को,
दैदीप्य कर जगत को।
मेरा जगत?
मैं स्वयं।
मेरे भीतर?
सारा ब्रम्हांड।
अंतर्दृष्टि की किरण
ही तो फूटेगी,
जब होगा
सारा अंतरिक्ष दैदीप्यमान।
आ!
लगाता हूँ मैं पुकार प्रियतम!
की थी,
प्रदक्षिणा अग्नि की।
क्यों?
न हो अंधकार ह्रदय में कभी।
कैसा अन्धकार?
दुर्भावना, संकुचन, कोप,
अपूर्णता, अन्मयस्कता, तटस्थता,
छद्म, द्वेष, अहंकार।
सब अंधकार।
एक सम्बन्ध,
दूसरे से
संत्रस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व सूर्य का।

तमसो मा ज्योतिर्गमयः

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

एक पल सोच लो...

किसी के आने का,
किसी के जाने का,
नहीं कुछ ग़म हमें,
बीते अफ़साने का।
ज़रा सी तमन्ना पर
यूँ बिगड़ जाना भी क्या?
गुनाह कुछ मेरा नहीं,
कुसूर मौसम मस्ताने का।
एक पल सोच लो हमसे जुदा होने से पहले।

कुछ कमाल निगाह का,
कुछ उस ठंडी आह का।
याद अब तलक मुझे,
अंजाम उस कराह का।
डूबना तो आसां है, मुश्किल
बहुत मगर निकलना।
ग़ुम होने के बाद पता
चलता नहीं है राह का।
एक पल सोच लो रिश्ते अदा करने से पहले।

ये प्याला परवाने का,
नाम हो दीवाने का,
चूमती शमा यहाँ,
पानी हर पैमाने का।
छलकता जाम यहाँ,
बिखरती बहार यहाँ,
मिलेगा तुझे कहाँ,
रंग ये मयखाने का?
एल पल सोच लो अलविदा कहने से पहले।

बुधवार, 6 जनवरी 2010

विषाक्त !!

रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

सौम्य नहीं वह प्रवाह मुझमे,
हर वेग उठाता एक कराह मुझमे।
मैं सब शोषित-पोषित कर सकता हूँ,
अति अगाध वह थाह मुझमे।
हर मंथन एक ज्वार उठाता है,
एक सागर सा है लहरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

मेरी त्रुटियों का संजाल,
हर पल आहत करता काल।
मैं विकल काल के गाल समाऊँ,
कुछ आशायें, स्मृतियाँ बन जातीं ढाल।
प्रतिशोध उगाता फिर अमरबेल,
एक वन-प्रदेश सा बनता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

मुझमे विरोध विकराल भरा,
मैं पुष्प नहीं, कंटक खरा।
तार-तम्य काज अति दुष्कर,
उठता एक दावानल गहरा।
झुलसे तन-मन पल-पल फिर,
अंगार भरा घन घुमड़ता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

आशीष वचन सब श्राप बने,
मंत्रोच्चार कटु प्रलाप बने।
ग्रहण नहीं वह अमिट कलंक था,
क्षणिक शीतलता जीवन का संताप बने।
ज्वालामुखी विस्फोट करे जो,
वह लावा सा है तिरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

सोमवार, 4 जनवरी 2010

इतना ही...


अभी क्यूँ करता मेरा दिल रोने को।
तमाशे बाकी हैं अभी बहुत होने को।

अभी तो बस तुझे गले से लगाया था,
ज़िन्दगी में काफ़ी कुछ बचा है खोने को।

नज़रें उठा कर क्या देखें तुम्हे हम,
आँखों में बचा नही पानी भी रोने को।

घुटनों से पेट को दबा रखा है बामुश्किल,
कैसे कह सकते हो अभी तुम हमें सोने को।

अब दर्द मे कराह कोई निकले क्यूँ,
खून भी कहाँ बचा ज़ख़्म धोने को।

हमारे हाथ भर गये छालों से, लेकिन
नफ़रत के अँगारे फिर भी बचे हैं बोने को।

हसरतें कब तक तुम इसमे सजाओगे,
अब तो छोड़ो माटी के इस खलोने को।

पिछली यादें हमको ज़रा भी नही सताती हैं,
रौंद कर निकले थे हम उस सपने सलोने को।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

जयघोष!

ज्वारहीन सागर की लहरें उतर रहीं ढलान पर,
कौमुदी भी नहीं रही अब उस उफान पर,
शांत है धरा, हलचल नहीं कुछ भी आसमान पर,
अतीत जैसे थम गया हो आ के वर्तमान पर।

काल चक्र मोड़ दो, मिथक तुम ये तोड़ दो,
प्रारब्ध एक छल है, छल ये तुम छोड़ दो,
भ्रम की टहनियों को आज तुम मरोड़ दो,
पवन की गति से फिर अपनी लय जोड़ दो।

वेगवान उस रथ पर तुम ऐसा व्यव्हार करो,
मुदित हों दिशा सभी हर स्वप्न साकार करो,
लक्ष्यों को वेध दो, अवरोधों को पार करो,
निस, दिन, मास, बरस, ये काज बार बार करो।

कुछ भी अप्राप्य नहीं, हो जो दृढ निश्चय,
हर नूतन तरंग को होती, अर्पित है एक विजय,
तट पर हों या मध्य-लहर, क्यूँ हो कोई भय?
प्रहार करो, वरण करो और उद् घोष करो जय।