बुधवार, 13 जनवरी 2010

मकर संक्रांति !!

मकर संक्रांति!
पर्व सूर्य का।
सूर्य का उदय तो ठीक,
पर अस्त किसका?
यदि उदय है,
तो
अस्त अवश्यंभावी है।
संभवतः,
संभावनाओं का उदय
और उनका ही अस्त।
जन्म-मृत्यु,
दिन-रात,
उत्थान-पतन,
सब उदय और
अस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व संभावनाओं का।
धूमिल पड़ती आशाओं का,
अज्ञात परिणामों का।
एक निर्निमेष गवेषणा
अनंत भविष्य में।
खोज,
एक गवाक्ष की।
जो,
दृष्टिगोचर करे
भविष्य को चक्षुओं के सामने;
अथवा
दे अंतर्दृष्टि,
जो करे अंकित मानस पटल पर,
चित्र समाधान के।
दे शक्ति
विवेचन की,
चिंतन की,
मनन की।
हा !
लगता नहीं ध्यान।
बाहर तो विदित है,
भीतर भी मनुष्य
व्यस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व समर्पण का।
यह सूर्य का
समर्पण ही तो है।
सर्वत्र किया प्रकाश,
स्वयं को जला कर।
वो
पग-पग
बढ़ रहा
ब्रम्हांड के अंधकार में।
किन्तु,
निरंतर छोड़ रहा
किरन आलोक की।
सब कुछ
निर्माता की कल्पना के अनुरूप
सु-विन्यस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व उद्देष्यों की पूर्ति का।
सूर्य की भांति
सत्य के आत्मसात का।
प्राप्ति का,
पूर्णता का,
समागम का,
संगम का।
बंध तोड़ कर भावनाओं के,
विलीन कर,
निहित कर,
समाहित कर।

सत्य के प्रवाह में,
अर्पित कर
स्वयं को,
समक्ष विधाता के।
तू तो निमित्त मात्र है,
किसी ध्येय का।
कर सबल स्वयं को इतना,
हों ध्येय पूर्ण समस्त।
अन्यथा क्या जीवन?
सब उद्देष्य
ध्वस्त ही तो हैं।

मकर संक्रांति!
पर्व प्रकाश का।
प्रदीप्त कर स्वयं को,
दैदीप्य कर जगत को।
मेरा जगत?
मैं स्वयं।
मेरे भीतर?
सारा ब्रम्हांड।
अंतर्दृष्टि की किरण
ही तो फूटेगी,
जब होगा
सारा अंतरिक्ष दैदीप्यमान।
आ!
लगाता हूँ मैं पुकार प्रियतम!
की थी,
प्रदक्षिणा अग्नि की।
क्यों?
न हो अंधकार ह्रदय में कभी।
कैसा अन्धकार?
दुर्भावना, संकुचन, कोप,
अपूर्णता, अन्मयस्कता, तटस्थता,
छद्म, द्वेष, अहंकार।
सब अंधकार।
एक सम्बन्ध,
दूसरे से
संत्रस्त ही तो है।

मकर संक्रांति!
पर्व सूर्य का।

तमसो मा ज्योतिर्गमयः

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