बुधवार, 6 जनवरी 2010

विषाक्त !!

रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

सौम्य नहीं वह प्रवाह मुझमे,
हर वेग उठाता एक कराह मुझमे।
मैं सब शोषित-पोषित कर सकता हूँ,
अति अगाध वह थाह मुझमे।
हर मंथन एक ज्वार उठाता है,
एक सागर सा है लहरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

मेरी त्रुटियों का संजाल,
हर पल आहत करता काल।
मैं विकल काल के गाल समाऊँ,
कुछ आशायें, स्मृतियाँ बन जातीं ढाल।
प्रतिशोध उगाता फिर अमरबेल,
एक वन-प्रदेश सा बनता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

मुझमे विरोध विकराल भरा,
मैं पुष्प नहीं, कंटक खरा।
तार-तम्य काज अति दुष्कर,
उठता एक दावानल गहरा।
झुलसे तन-मन पल-पल फिर,
अंगार भरा घन घुमड़ता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

आशीष वचन सब श्राप बने,
मंत्रोच्चार कटु प्रलाप बने।
ग्रहण नहीं वह अमिट कलंक था,
क्षणिक शीतलता जीवन का संताप बने।
ज्वालामुखी विस्फोट करे जो,
वह लावा सा है तिरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।

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