मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

तुम्हारे बिना

किसी को दिल दे कर हम पुरनूर हो गये।
इक इस बात से वो कितने मगरूर हो गये।

मोहब्बत की राहों मे दर्द एक साथी है,
करम आपके इतने बढ़े कि नासूर हो गये।

एक बुत सा बना कर छोड़ा है तुमने,
ख्वाब-ओ-ख्यालात सब काफूर हो गये।

नूर-ओ-शमा ने अपनी हिफ़ाज़त से बेदखल किया,
सियाह सायों के सफ़र हमें मंज़ूर हो गये।

मेरी गर्मी-ए-चश्म तेरी हयात न बन सकी,
सितम जो तुमने किये, हमारे कुसूर हो गये।

एक नये दीवाने से ताज़ा क़लाम रोज़ चाहिए,
मोहब्बत में निहां बाज़ार के दस्तूर हो गये।

आसमान में उड़ते परिंदों को कह दो,
क़फस मे आशियां बनाने को हम मजबूर हो गये।

खामोश मोहब्बत का यही अंजाम होता है,
तुम किसी के क़रीब हो गये, हम किसी से दूर हो गये।

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

विवशता

छीन    रहा    है   कोई   मुझसे   मेरे     विचारों   को,
मिटा   रहा    कोई   मेरे    जीवन     की   बहारों   को।
कहीं से कोई दबाव है कि मैं तोड़ दूँ सिद्धांतों को अपने,
फलों    के    बाग  में    दूँ    एक    बबूल   को   पनपने।
कह  रहा  कोई  कि  कर दूँ दमन अपनी  कामनाओं का,
मैं तो जियूं पर मिटा दूँ अस्तित्व अपनी भावनाओं का।
कर    रहा   आज   कोई    मेरी    लेखनी     पर   प्रहार,
और  मैं?     मैं    सब    स्वीकार    कर   रहा    साभार।
मैं    गरजना    चाहता    हूँ,    पर    गरज  नहीं सकता,
बरसना     चाहता     हूँ,    पर   बरस   नहीं    सकता।
विवश  किया जाता है मुझे सब   कुछ  सहन करने को,
आडम्बर  के  आवरणों  को  चुपचाप  वहन  करने  को।
आँखों को मेरी भयाक्रांत करने का प्रयास किया जाता है,
और फिर धीरे-धीरे मेरी  चेतना का ह्रास किया  जाता है।
मैं  मिटने  से पहले  अंतिम बार अपने  भीतर देखता हूँ,
अपने  ह्रदय की धडकनों पर  अपना  विश्वास सेंकता हूँ।
अनुभव  करता  हूँ  किसी  का  ज़ोर-ज़ोर  से  बिलखना,
और देखता हूँ एक  छिपकली  का  पतंगे  को  निगलना।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

प्रीत

नशा सा छा रहा है कलम दो मैं गीत लिखूंगा,
सुरूर सा आ रहा है आज मैं अपनी प्रीत लिखूंगा।
वो प्रीत जिसमे प्रियतम तो मैं, लेकिन प्रेयसी नहीं कोई,
दृष्टि जो मुझे तो जीत गयी, लेकिन ऐसी अजेय सी नहीं कोई।
किस राह से शुरू हुई, किस मोड़ पर रूठ गयी,
नहीं कुछ मालूम हमें वह कली कैसे टूट गयी।
जिस शिला पर लिखी थी वो कविता; अपनी कहानी,
वह शिला नहीं अब, वहां सिर्फ पानी ही पानी।
वही पानी आज मैं अपनी आँखों में उतार लाया हूँ,
पढ़ सको तो पढ़ लो, मैं अपनी कविता का सार लाया हूँ।
एक-दो नहीं, हज़ारों ने इस पर नज़र का बोझ डाला है,
अपनी आँखों की आग से निर्दयता से इसे सोख डाला है।
फिर भी दो-चार बूंदे पलकों में रह ही गयीं,
भावना के प्रवाह में रोकते-रोकते बह ही गयीं।
इसी उमड़ी हुई धारा मे मैं जीवन की नाव चला रहा हूँ,
सादे से अपने जीवन में कविता के भाव सजा रहा हूँ।
नशा सा छा रहा है कलम दो मैं गीत लिखूंगा,
सुरूर सा आ रहा है आज मैं अपनी प्रीत लिखूंगा।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

नटखट चूहा

आया घर में
चूहा नटखट,
बिल्ली दौड़ी
झटपट झटपट।


चूहा बोला
बिल्ली मौसी,
तेरे पीछे
कुत्ता जौसी।

बिल्ली ने तब
नज़र घुमाई,
कहीं न कुत्ता
दिया दिखाई।

चूहे ने झट
दौड़ लगायी,
बिल्ली उसको
पकड़ न पाई।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

पिय के दुआर

इस पार से उस पार जा,
डोलिया कहार ला,
ओढ़ के बैठूं जो,
वो चुनरी हमार ला।

हमरे दरवाजे पे,
गाजे औ बाजे ले,
महूरत बिचार के,
बारात हमार ला।

रतियाँ न कटती हैं,
बतियाँ न छंटती हैं,
पियतम की पाती है,
आइना सिंगार ला।

बिरहा अंगार सी,
छोटे सरकार की,
हूकती है हमको,
थोड़ी बुझवार ला।

न हमसे कही जाती,
न हमसे सही जाती,
डोलिया उठाय हमार,
पिय के दुआर ला।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

स्तम्भ

समय की गति जीवन के अल्प काल में ही मनुष्य को उसकी उपादेयता के विभिन्न आयामों से परिचित करा देती है। अपने पाँच कमरों के मकान के एकांत में, दालान की आराम कुर्सी पर बैठे राम शंकर बाबू जाड़े की दोपहर की जाती हुयी धूप को सेंकते हुए यही विचार कर रहे थे।

"आप एक ठूंठ से अधिक और कुछ भी नहीं हैं"। उनके अपने बच्चे ही इस दीपावली पर ऐसा ही न जाने क्या-क्या कह कर चले गए थे। यद्यपि उन्होंने इसे एक अनर्गल प्रलाप से अधिक महत्त्व नहीं दिया तथापि, उन्होंने अपनी जीवन यात्रा की प्रासंगिकता पर एक दृष्टि अवश्य डाली।

उनके माँ और बाबू जी ने सदा उन्हें एक नन्हा पौधा समझ कर जीवन की बगिया में पल्लवित किया। उनके छोटे भाई-बहनों ने इस बढ़ते हुए पौधे को अपना सुरक्षा कवच माना। अपनी तरुणाई में यह तरु अपने मित्रों व सहपाठियों को सहायता के अनन्य कुसुम बिखराता था। उनकी जीवन-संगिनी ने उन्हें सदैव एक विशाल वृक्ष के रूप में देखा, जिसने सभी को यथाशक्ति दीर्घावधि तक अपनी मृदुल छाया का स्पर्श दिया। नये समय के रंग में रंगी नयी पीढ़ी ने जीवन के इस मोड़ पर यकायक उन्हें ठूंठ की संज्ञा दे डाली।

अपनी उपादेयता के इन्हीं अध्यायों का ध्यान कर वे मन ही मन मुस्कुरा दिए। उन्होंने तो बस एक स्तम्भ की भांति दृढ़ रह कर जीवन की जीवन की धूप-छांव में अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन किया। यह स्तम्भ कब पौधा था, कब वृक्ष बना और कब ठूंठ में परिवर्तित हो गया, इस यात्रा के विषय में उन्होंने कभी सोचा ही न था। जीवन की कितनी ही विषमतायें इस स्तम्भ से टकरा कर वापस लौट गयीं, दुश्वारियों के अनेक अंधड़ भी इसके आधार को हिला न सके, कष्टों का ताप इसे तनिक भी विगलित न कर सका और न ही जीवन के संघर्ष इस स्तम्भ पर खरोंच डाल सके। क्या ठूंठ ऐसा होता है?

छियत्तर की इस वय में विचारों की इसी उधेड़बुन की दुशाला डाले वे संध्या भ्रमण के लिए निकल पड़े।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

आपका साथ

मोहब्बत से लबरेज़ इबारत नही।
टूटे अरमानों की कोई इमारत नही।

दिल की गहराई से उठी सदा है,
किसी मनचले की शरारत नही।

मुझको ऐसी नज़रों से ना देखो सनम,
जिनमे हम पर ज़रा भी इनायत नही।

ना कहना तुम्हारा बड़ा लाज़िमी है,
आरिज़ो से होती बयाँ चाहत नही।

बेखौफ़ मोहब्बत भी राज़दारी चाहती है,
किसी दूसरे को दखल की दावत नही।

ठंडे ना हो जायें मोहब्बत के शोले,
तेवरों में तुम्हारे बग़ावत नही।

कायनात कर रही इस्तक़बाल तुम्हारा,
तेरे जलवों से किसी को भी राहत नही।

हवाओं को भेजा है तुमने रफ़्तार से,
दर्द-ए-पिन्हा भी मेरा अब सलामत नही।

परतवे माहताब भी मुझको जलाने लगी,
कहीं ये भी तुम्हारी मातहत नही।

पैमाइशें औ इम्तिहान तो बहोत आएँगे,
मुझको भुलाने की तुमको इजाज़त नही।

अपनी पनाहों से मुझको ना महरूम रखो,
अकेले चलने की अपनी अब आदत नही।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

वाचाल तुम ??

इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम ?


दिनकर अभी किरण अलोक की फैला ना पाया,
शशि अभी पूरी तरह खुद को छुपा ना पाया,
मद्धिम छवि तारों की अभी भी इठलाती है,
और आती निकट मेरे उठाये भाल तुम।
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

पंछियों की चहचहाहट अभी आ ना पायी,
सीपियाँ भी सागर में खुद को छुपा ना पायीं,
जुगनुओं की रौशनी थमी ना उनकी गुनगुनाहट,
पर अठखेलियाँ करती चल रही अजब चाल तुम!
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

प्रकृति को नहीं मालूम कि कुछ हेराफेरी हो गयी है,
यहाँ किसी को अभिमान त्यागने में देरी हो गयी है,
कुण्डलिनी जग उठी है किसी सोते हुये इन्सान की,
अब धीर धरो मत करो कामनाओं को विकराल तुम।
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

सहज यह भी नहीं, सहज वह भी नहीं, सब जानते हैं,
प्रारब्ध और समय के चक्र का बंधन भी सब मानते हैं,
भोर की पहली किरण नव - प्रयाण का संकेत है,
फिर भी उनींदे नयन लिए बुन रही यह कैसा जाल तुम?
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

सब कुछ पता था, फिर भी जानने को था बहुत कुछ शेष,
मुक्त हो कर उन्मुक्त हो उठा था यह प्रश्न विशेष,
अभिलाष यौवन भी क्षणिक, क्षणिक शमशान का वैराग्य भी,
मत हो इस अरुणिमा में इतनी वाचाल तुम।

इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?