शनिवार, 19 दिसंबर 2009

वाचाल तुम ??

इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम ?


दिनकर अभी किरण अलोक की फैला ना पाया,
शशि अभी पूरी तरह खुद को छुपा ना पाया,
मद्धिम छवि तारों की अभी भी इठलाती है,
और आती निकट मेरे उठाये भाल तुम।
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

पंछियों की चहचहाहट अभी आ ना पायी,
सीपियाँ भी सागर में खुद को छुपा ना पायीं,
जुगनुओं की रौशनी थमी ना उनकी गुनगुनाहट,
पर अठखेलियाँ करती चल रही अजब चाल तुम!
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

प्रकृति को नहीं मालूम कि कुछ हेराफेरी हो गयी है,
यहाँ किसी को अभिमान त्यागने में देरी हो गयी है,
कुण्डलिनी जग उठी है किसी सोते हुये इन्सान की,
अब धीर धरो मत करो कामनाओं को विकराल तुम।
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

सहज यह भी नहीं, सहज वह भी नहीं, सब जानते हैं,
प्रारब्ध और समय के चक्र का बंधन भी सब मानते हैं,
भोर की पहली किरण नव - प्रयाण का संकेत है,
फिर भी उनींदे नयन लिए बुन रही यह कैसा जाल तुम?
इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

सब कुछ पता था, फिर भी जानने को था बहुत कुछ शेष,
मुक्त हो कर उन्मुक्त हो उठा था यह प्रश्न विशेष,
अभिलाष यौवन भी क्षणिक, क्षणिक शमशान का वैराग्य भी,
मत हो इस अरुणिमा में इतनी वाचाल तुम।

इस अरुणिमा में क्यूँ इतनी वाचाल तुम?

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