बुधवार, 23 दिसंबर 2009

स्तम्भ

समय की गति जीवन के अल्प काल में ही मनुष्य को उसकी उपादेयता के विभिन्न आयामों से परिचित करा देती है। अपने पाँच कमरों के मकान के एकांत में, दालान की आराम कुर्सी पर बैठे राम शंकर बाबू जाड़े की दोपहर की जाती हुयी धूप को सेंकते हुए यही विचार कर रहे थे।

"आप एक ठूंठ से अधिक और कुछ भी नहीं हैं"। उनके अपने बच्चे ही इस दीपावली पर ऐसा ही न जाने क्या-क्या कह कर चले गए थे। यद्यपि उन्होंने इसे एक अनर्गल प्रलाप से अधिक महत्त्व नहीं दिया तथापि, उन्होंने अपनी जीवन यात्रा की प्रासंगिकता पर एक दृष्टि अवश्य डाली।

उनके माँ और बाबू जी ने सदा उन्हें एक नन्हा पौधा समझ कर जीवन की बगिया में पल्लवित किया। उनके छोटे भाई-बहनों ने इस बढ़ते हुए पौधे को अपना सुरक्षा कवच माना। अपनी तरुणाई में यह तरु अपने मित्रों व सहपाठियों को सहायता के अनन्य कुसुम बिखराता था। उनकी जीवन-संगिनी ने उन्हें सदैव एक विशाल वृक्ष के रूप में देखा, जिसने सभी को यथाशक्ति दीर्घावधि तक अपनी मृदुल छाया का स्पर्श दिया। नये समय के रंग में रंगी नयी पीढ़ी ने जीवन के इस मोड़ पर यकायक उन्हें ठूंठ की संज्ञा दे डाली।

अपनी उपादेयता के इन्हीं अध्यायों का ध्यान कर वे मन ही मन मुस्कुरा दिए। उन्होंने तो बस एक स्तम्भ की भांति दृढ़ रह कर जीवन की जीवन की धूप-छांव में अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन किया। यह स्तम्भ कब पौधा था, कब वृक्ष बना और कब ठूंठ में परिवर्तित हो गया, इस यात्रा के विषय में उन्होंने कभी सोचा ही न था। जीवन की कितनी ही विषमतायें इस स्तम्भ से टकरा कर वापस लौट गयीं, दुश्वारियों के अनेक अंधड़ भी इसके आधार को हिला न सके, कष्टों का ताप इसे तनिक भी विगलित न कर सका और न ही जीवन के संघर्ष इस स्तम्भ पर खरोंच डाल सके। क्या ठूंठ ऐसा होता है?

छियत्तर की इस वय में विचारों की इसी उधेड़बुन की दुशाला डाले वे संध्या भ्रमण के लिए निकल पड़े।

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