शनिवार, 26 दिसंबर 2009

प्रीत

नशा सा छा रहा है कलम दो मैं गीत लिखूंगा,
सुरूर सा आ रहा है आज मैं अपनी प्रीत लिखूंगा।
वो प्रीत जिसमे प्रियतम तो मैं, लेकिन प्रेयसी नहीं कोई,
दृष्टि जो मुझे तो जीत गयी, लेकिन ऐसी अजेय सी नहीं कोई।
किस राह से शुरू हुई, किस मोड़ पर रूठ गयी,
नहीं कुछ मालूम हमें वह कली कैसे टूट गयी।
जिस शिला पर लिखी थी वो कविता; अपनी कहानी,
वह शिला नहीं अब, वहां सिर्फ पानी ही पानी।
वही पानी आज मैं अपनी आँखों में उतार लाया हूँ,
पढ़ सको तो पढ़ लो, मैं अपनी कविता का सार लाया हूँ।
एक-दो नहीं, हज़ारों ने इस पर नज़र का बोझ डाला है,
अपनी आँखों की आग से निर्दयता से इसे सोख डाला है।
फिर भी दो-चार बूंदे पलकों में रह ही गयीं,
भावना के प्रवाह में रोकते-रोकते बह ही गयीं।
इसी उमड़ी हुई धारा मे मैं जीवन की नाव चला रहा हूँ,
सादे से अपने जीवन में कविता के भाव सजा रहा हूँ।
नशा सा छा रहा है कलम दो मैं गीत लिखूंगा,
सुरूर सा आ रहा है आज मैं अपनी प्रीत लिखूंगा।

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