सोमवार, 28 दिसंबर 2009

विवशता

छीन    रहा    है   कोई   मुझसे   मेरे     विचारों   को,
मिटा   रहा    कोई   मेरे    जीवन     की   बहारों   को।
कहीं से कोई दबाव है कि मैं तोड़ दूँ सिद्धांतों को अपने,
फलों    के    बाग  में    दूँ    एक    बबूल   को   पनपने।
कह  रहा  कोई  कि  कर दूँ दमन अपनी  कामनाओं का,
मैं तो जियूं पर मिटा दूँ अस्तित्व अपनी भावनाओं का।
कर    रहा   आज   कोई    मेरी    लेखनी     पर   प्रहार,
और  मैं?     मैं    सब    स्वीकार    कर   रहा    साभार।
मैं    गरजना    चाहता    हूँ,    पर    गरज  नहीं सकता,
बरसना     चाहता     हूँ,    पर   बरस   नहीं    सकता।
विवश  किया जाता है मुझे सब   कुछ  सहन करने को,
आडम्बर  के  आवरणों  को  चुपचाप  वहन  करने  को।
आँखों को मेरी भयाक्रांत करने का प्रयास किया जाता है,
और फिर धीरे-धीरे मेरी  चेतना का ह्रास किया  जाता है।
मैं  मिटने  से पहले  अंतिम बार अपने  भीतर देखता हूँ,
अपने  ह्रदय की धडकनों पर  अपना  विश्वास सेंकता हूँ।
अनुभव  करता  हूँ  किसी  का  ज़ोर-ज़ोर  से  बिलखना,
और देखता हूँ एक  छिपकली  का  पतंगे  को  निगलना।

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