शनिवार, 7 मार्च 2015

मंथन


सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।  

जब मन में तेरे भेद भरा था, फिर न्याय का क्यूँ उल्लेख किया?
अपने  मन  के  सम्बल  हेतु क्यों  मेरा  झूठा  अभिषेक  किया? 
अपना अधिकार ही  माँगा था,  इसमें क्या कुछ अतिरेक किया?
 हमने तुम पर विश्वास किया, और तुमने आरोप प्रत्येक दिया।  
ऐसे में भी तत्पर हैं हम, तुमसे अपना सम्बन्ध अटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जिसको    चाहा    तुमने   प्रसाद    दिया,
मधु नहीं,  अमृत - कण का स्वाद  दिया,
विष ढाला प्याले में और आर्तनाद  दिया. 
हमको   जीवन  भर  का  अवसाद  दिया,
कितना   सुन्दर गढ़ा  गया इस नाट्य मंच का पटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

मन  को मथना,  सोच - विचार  सब धोखा है,
जो नियत किया तुमने, उसको  कब रोका है? 
मिथ्या   वचनों   का    यह    खेल  अनोखा है,
दोष विधाता को दे दो, क्या अद्धभुत मौका है।  
खुद को पावन प्रस्तुत करना कितना सहज सरल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जब देव - अदेव का भेद किया  तब  चिंतन को क्या शेष बचा?
गुण-अवगुण जब निश्चित हैं, तब मंथन से क्या सन्देश रचा?
जब  पहले  से  बलिहारी  हो,  फिर क्यों भरमाते हो वेश सजा?
अमृत-घट उनको ही दे दो , मेरे पलड़े में तुम दो विद्वेश बढ़ा।  
भाव मथे जिस ह्रदय में तुमने वह पत्थर है, मंदराचल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

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