गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

तेरी रज़ा

जो मैंने सोचे  भी ना  थे  कभी  उन गुनाहों की सज़ा दी उसने।
मेरी आँखों को जलाते ऐसे फुरकत के शोलों को हवा दी उसने।

अमानत  के  मानिन्द दी थी जिन्हें अपने नसीबों की पोटली,
मेरे    पापों      गठरी     समझ,     गंगा  में   बहा  दी   उसने।

जिन पन्नों पर लिखी थी इबारत कुछ अनकही दास्तानों की,
वो   किताबें   मेरी    नज़रों   से   छुपा  कर  जला  दी  उसने।

मै   मानता   था  रहनुमाई   को  हाथ  उसका   आएगा  ज़रूर,
तूफान में डोले कोई पत्ता,  मेरी याद कुछ यूँ बिसरा दी उसने।

कलम  पे  चोट  होती  और  काफ़िये  पे  रोक  लेती जिंदगानी,
एक  सन्नाटा  सा  था  पसरा,  और  शायरी  फ़ना  थी  उसमे।

और मुश्किल ये  भी कि आंसू कागज़ पे अलफ़ाज़ छोड़ते नहीं,
बदल   गयी   है  अब   मेरी  रचना, सियाही  कज़ा  की  उसने। 

वक़्त  बदलता  है,  रवायतें,    चालोचलन,  दस्तूर  बदलते  हैं,
अपने   हाथों   से   खैंची   लकीरों   की  ये   वजह  दी   उसने।

इस  ढलान  पर कोई  कदम से कदम  मिला कर चलेगा  साथ,
ये  सोच  कर जो हमराह था मेरा, अपनी रफ़्तार बढ़ा दी उसने। 

मैं फिर भी पकड़ लूँगा उसे, ये सच उसका खुदा भी जानता है,
रंज बस इतना है कि तेरी भी रज़ा थी जब ये खता की उसने।

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