सौन्दर्यमयी, रूप-स्वामिनी, उन्मत्त, दग्ध यौवन।
मादक श्रृंगार, आकुल पुकार, करत प्रतीक्षा चितवन।
उत्तप्त आस, अनल ह्रदय में, अधर नहीं ये स्यंदन,
आ प्रिये! दूँ मैं शीतलता श्वासों में मेरी चन्दन।
अंतर्ज्वाला कि शांति का समाधान बस अंतर्मन,
हो कर एकाकार प्रियतमे, करें प्रेम का वंदन।
देखा ही है अब तक कुसुमों पर भ्रमरों का गुंजन,
साक्षी इसी प्रतीति के बन जाने को करता मन।
बेला मिलन की, ऋतुराज का सम्मोहक निमन्तरन,
आ चित्रित करें जीवन्तता को उकेर कर चुम्बन।
यात्रा का अंत नहीं, यह तो बस प्रथम अंकन,
समाधि तक पहुँचायेगा, सम्भोग का अभिनन्दन।
रविवार, 19 सितंबर 2010
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