मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

पाश

श्वास की डोर से,
मन के उस छोर से,
बंधन चहुँ ओर से,
निस तक भोर से,
एक विचित्र पाश है।

चांदनी चकोर से,
झूमते हैं मोर से,
सशंकित चोर से,
बोलते न ज़ोर से,
यह विचित्र आभास है।

बरसे घन घोर से,
बरखा सब ओर से,
बज रहे ढोर से,
मद झरे पोर-पोर से,
यह विचित्र उल्लास है।

फिर डरे सब ज़ोर से,
भय आया हर ओर से,
दिन हारा तम घोर से,
अब आशा बस भोर से,
यह विचित्र त्रास है।