क्षीर नीर से ले कर ज्यों कोई हंस हो पीता,
ऐसे सम्बल ले कर तुमसे मैं जीवन अपना जीता।
क्यूँ न कहूँ सागरिका तुमको, मिलें जहाँ गुण-सरिता,
पतझर में सावन ला दो, हे स्नेह-स्वरूपा वनिता।
जीवन के क्षण युग से लगे, ऐसा भी एक काल है बीता,
वह पल भी है मैंने भोगा जब स्वयं ही से मैं भीता।
बरसाया अनुराग बहुत सा, बन कर मेरी अनुप्रीता,
मैं ही संचय कर ना पाया, हृदयकोश चिर रीता।
रहा नहीं मधुमास ,हाय! विलग हुयी मुझसे मेरी मधुमीता,
अहो! क्या कर सके राम भी,चली गयीं थी जब सीता ?
तिस पर भी उर से लगा रखे मस्तक पर बन रज -शोभिता,
प्रेम-गुच्छ का अर्पण फीका, प्रिये! तुम हो मेरी वन्दिता।
ऐसे सम्बल ले कर तुमसे मैं जीवन अपना जीता।
क्यूँ न कहूँ सागरिका तुमको, मिलें जहाँ गुण-सरिता,
पतझर में सावन ला दो, हे स्नेह-स्वरूपा वनिता।
जीवन के क्षण युग से लगे, ऐसा भी एक काल है बीता,
वह पल भी है मैंने भोगा जब स्वयं ही से मैं भीता।
बरसाया अनुराग बहुत सा, बन कर मेरी अनुप्रीता,
मैं ही संचय कर ना पाया, हृदयकोश चिर रीता।
रहा नहीं मधुमास ,हाय! विलग हुयी मुझसे मेरी मधुमीता,
अहो! क्या कर सके राम भी,चली गयीं थी जब सीता ?
तिस पर भी उर से लगा रखे मस्तक पर बन रज -शोभिता,
प्रेम-गुच्छ का अर्पण फीका, प्रिये! तुम हो मेरी वन्दिता।