यह कैसा पूजन, आराधन जो छू न सके तनिक भी मन को?
वह अर्चन, वंदन क्या, जो जिह्वा पर सीमित कर दे सुमिरन को?
उस तप की आंच का क्या, कंचन न करे जो आचरण को?
व्यर्थ वह दर्शन - नमन, जो झंकृत न कर पाये चेतन को।
बहुत हुआ, अब बंद करो इस कपट ढोंग प्रदर्शन को।
मिथ्या चीत्कार को, प्रस्तर पर मस्तक के घर्षण को।
मूल्यहीन, बलहीन किया अन्तर्मन के अभ्यर्थन को।
अब कौन करे उद्घोष, करे आमंत्रित परिवर्तन को?
प्रस्फुरित करेगी आकुल पुकार, नेपथ्य के उद्बोधन को,
जिसकी भी है सत्य शपथ, वह प्रस्तुत सागर-मंथन को।
विष का क्या, हर सकेगा वह किसी के आत्म-संवेदन को?
अमृत भी क्या देगा, वैरागी मन के चिंतन को?
प्रस्तुत हो वह, जो है तैयार समग्र समर्पण को,
जीवन - प्रत्यंचा पर साधे श्वासों के स्पंदन को।
उत्कंठित हो यदि नव - ईश्वर के स्वागत-अभिनन्दन को,
फिर बढ़ कर स्वीकार करो अस्तित्व के आलिंगन को।
वह अर्चन, वंदन क्या, जो जिह्वा पर सीमित कर दे सुमिरन को?
उस तप की आंच का क्या, कंचन न करे जो आचरण को?
व्यर्थ वह दर्शन - नमन, जो झंकृत न कर पाये चेतन को।
बहुत हुआ, अब बंद करो इस कपट ढोंग प्रदर्शन को।
मिथ्या चीत्कार को, प्रस्तर पर मस्तक के घर्षण को।
मूल्यहीन, बलहीन किया अन्तर्मन के अभ्यर्थन को।
अब कौन करे उद्घोष, करे आमंत्रित परिवर्तन को?
प्रस्फुरित करेगी आकुल पुकार, नेपथ्य के उद्बोधन को,
जिसकी भी है सत्य शपथ, वह प्रस्तुत सागर-मंथन को।
विष का क्या, हर सकेगा वह किसी के आत्म-संवेदन को?
अमृत भी क्या देगा, वैरागी मन के चिंतन को?
प्रस्तुत हो वह, जो है तैयार समग्र समर्पण को,
जीवन - प्रत्यंचा पर साधे श्वासों के स्पंदन को।
उत्कंठित हो यदि नव - ईश्वर के स्वागत-अभिनन्दन को,
फिर बढ़ कर स्वीकार करो अस्तित्व के आलिंगन को।