बुधवार, 12 मई 2010

अस्तित्व

ये अन्जान नदी, ये लहराती चाल,
साथी ये टूटे-फूटे पाल।
ये बिगड़-बिगड़ उठती लहरें,
फैलती देखो कैसा जाल।

तिस पर भी बढ़ता उसकी तलाश में,
घिर-घिर रहा पर जग के पाश में।
फिर भी ढूँढ रहा उसको मैं,
पेड़ों, पौधों, पत्तों, पलाश में।

दामिनी सहसा लगी दमकने,
घिर कर बादल लगे बरसने।
उठीं मेरे अंतर में लहरें,
दिल फिर मेरा लगा धड़कने।

उल्टी-पल्टी जाती नाव,
निकट किनारा दूर है गाँव।
कल नहीं आज अभी तत्काल,
पा लेनी है वह अमर छाँव।

वह छाँव जहाँ है सुख परम,
वह ठौर जहाँ आनंद चरम।
अनुभूति उसी की है अब करनी,
तोड़ इस स्वर्ण-हिरन का भ्रम।

पहुंचा जब मैं उसके द्वार,
हुए कम्पित मन के तार।
रूप स्वरुप विराट अनुपम,
मेरे सम्मुख सारा सार।

शीश झुका किया शत-शत नमन,
माँगा आशीष मन ही मन।
समझा मैंने सन्देश वह शाश्वत,
अस्तित्व हमारा पल्लवित सुमन।

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