गुरुवार, 17 नवंबर 2011

आ जा प्यारे, पास हमारे

आ    जा    प्यारे    अब   तू    बंधन     तोड़   के   सारे ,
तेरे   स्वागत   को  उत्सुक,  हमारे  स्वर  तुम्हे पुकारे ।
बड़ी  रौशन ये दुनिया है तुम  इसको और जगमगाओ ,
इस पर पाँव रखने में न तनिक भी तुम हिचकिचाओ ।
तुम्हारे      से   है     रंगीनी,   खुशियाँ   हैं,    बहारे   हैं ,
इसी  इक  गुल  के  खिलने  से   बगिया   में  नज़ारें हैं ।
कोई तो कारण हो जो लहरें चीर दें हम काल-सागर की ;
कोई  आँखों  का तारा जो, हमको दे दिशा ध्रुव तारे सी ।
मौसमों  को  बदलेगी  जो   तेरी   पलकों  की  आहट हो ;
तारों   की   सुषमा   को,   चंदा   की   मुस्कराहट   को ।
सूरज    भी    बिठाएगा    तुमको    श्यामल    छाहों  में ;
बादलों    के    हिंडोले    झूलेंगे    श्रीदा   की   बांहों   से ।
प्रतीक्षा  की   घड़ियाँ    हैं,   होता    मन  ज़रा  ना  स्थिर ;
तुझे  देखने  की  आतुरता आती है बारम्बार घिर -घिर ।
तुम्हे  लहरायें ,  ढुलकायें,  करें  हम  लाड़  सब मिल कर ;
सुमंगल   कामना  ले  कर ,  खड़े  देखो  सभी  हिल कर ।
होते  व्यक्त  ना   मुझसे  अब  अधिक  उदगार  हैं प्यारे ;
अब  आओ तुम  करेंगे  बात  मिल  कर  तभी  हम सारे ।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

आह्लाद

करते हुए हम आज तुमको स्मरण,
आह्लादित हैं कि जो हो रहा नव-स्फुरण;
किस रूप में किसके पड़ रहे ये नव-चरण,
नमन विधाता को, प्रफुल्लित आज अंतःकरण।

समय के चक्र ने फिर धूप ये खिलायी है,
गवाक्षों से छन कर यह धवल किरण आयी है;
हो ना हो तुम्ही हो यह छवि जो झिलमिलायी है?
प्रकाश को बिखेरने नयी रश्मि जगमगायी है।

अनंत अभिसिंचित प्रसन्नता के आयाम हैं,

उल्लास से भरे हुए दंड, प्रहर, याम हैं;
एक बस अवकाश है जो आपके नाम है,
आपकी स्मृतियों को हम सब का प्रणाम है।

नव राह नव कोपलों से हो सुसज्जित सर्वदा,
यही रही है इस प्रकृति कि कथा, प्रथा सर्वथा;
नव अंकुरण हो पल्लवित, विकसित हो वह सदा,
इस आशय का आशीष ही आप दो हे श्रीदा !

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

डरता हूँ...

ऐ वक़्त मैं हर सिम्त तेरी चाल से डरता हूँ।
जाने क्या गुल खिलें, रौशन मशाल से डरता हूँ।

कोई है ज़रूर कहीं जो रचता है खेल ये सब,
उरूजो जवाल का मालिक, उसके जलाल से डरता हूँ।

जवाब देना पड़े गीता पे हाथ रख कर जिसका,
मैं सच कहता हूँ, मैं हर उस सवाल से डरता हूँ।

सरहद टूट जाएगी, हर हद टूट जाएगी,
आदमी आदमी को खाए, इस सूरते हाल से डरता हूँ।

तुम्हारी बेवफाईयां नाकाबिले बर्दाश्त हैं,
तारीखे मोहब्बत पशेमाँ न हो, इस ख्याल से डरता हूँ।

मुझको भाती नहीं हैं ये छिटकी-छिटकी रौशनियाँ,
सियाह रातों में मैं, बिजली की कदमताल से डरता हूँ।

मजहब के जूनून ने खैंची हैं ऐसी खाइयाँ,
करीम मोहन से डरता है, मैं बिलाल से डरता हूँ।

रकीबों में जा के बैठने लगे हैं जबसे अपने मेरे,
कटार को इल्ज़ाम क्यूँ, मैं तो अब ढाल से डरता हूँ।

साल दर साल बढ़ रहा है नफरतों का दायरा,
क्या मुबारक दूं? मैं नए साल से डरता हूँ।