गुरुवार, 6 जनवरी 2011

डरता हूँ...

ऐ वक़्त मैं हर सिम्त तेरी चाल से डरता हूँ।
जाने क्या गुल खिलें, रौशन मशाल से डरता हूँ।

कोई है ज़रूर कहीं जो रचता है खेल ये सब,
उरूजो जवाल का मालिक, उसके जलाल से डरता हूँ।

जवाब देना पड़े गीता पे हाथ रख कर जिसका,
मैं सच कहता हूँ, मैं हर उस सवाल से डरता हूँ।

सरहद टूट जाएगी, हर हद टूट जाएगी,
आदमी आदमी को खाए, इस सूरते हाल से डरता हूँ।

तुम्हारी बेवफाईयां नाकाबिले बर्दाश्त हैं,
तारीखे मोहब्बत पशेमाँ न हो, इस ख्याल से डरता हूँ।

मुझको भाती नहीं हैं ये छिटकी-छिटकी रौशनियाँ,
सियाह रातों में मैं, बिजली की कदमताल से डरता हूँ।

मजहब के जूनून ने खैंची हैं ऐसी खाइयाँ,
करीम मोहन से डरता है, मैं बिलाल से डरता हूँ।

रकीबों में जा के बैठने लगे हैं जबसे अपने मेरे,
कटार को इल्ज़ाम क्यूँ, मैं तो अब ढाल से डरता हूँ।

साल दर साल बढ़ रहा है नफरतों का दायरा,
क्या मुबारक दूं? मैं नए साल से डरता हूँ।

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