शुक्रवार, 30 मई 2014

..... छोड़ दो

सुबह शाम के  अलाप छोड़ दो,
गुरियों  पर  वो   जाप छोड़ दो,
चिंता  भरे  हुये   इस  मन  से,
जीवन  के  संताप   छोड़   दो।

 
रहो या कि तुम  साथ  छोड़ दो,
हज़ारों क्या तुम लाख छोड़ दो,
मानूंगा  तुमको  मैं साथी  तब,
मुठ्ठी  भर  जब  खाक़  छोड़ दो।


सीधी  बात   कहो  'अर्थात' छोड़ दो,
सारे    उनके     निहितार्थ  छोड़ दो,
जो   मन   में   प्रीत   बसायी   तूने,
फिर समझो भाव, भावार्थ छोड़ दो।


जो  पीड़ा   दे  वह  प्यार  छोड़ दो,
अभिलाषा  वाले  व्यापार छोड़ दो,
उस  ओर   धरा  है,   हरियाली  है,
और मुझको तुम  मँझधार छोड़ दो

अंधड़  से  नौका  के   विलाप  छोड़ दो,
राग-द्धेष  की ऐनक  वाले पाप छोड़ दो,
आने  वाली  सदियों  के पल रहें मुखर,
पद्चिन्हों  की  तुम  वह छाप छोड़ दो।    
  
कहते  हो  तुम  प्रीत  छोड़ दो,
बढ़   जाओ  मनमीत छोड़ दो,
जीवन    मेरा   प्रेम - धुनी   है,
मत बोलो  कि संगीत छोड़ दो। 


अधरों  से  अधरों  का  आधार  छोड़ दो,
फिर नयनों में असुवन की धार छोड़ दो,
मत फहराओ स्वागत की ध्वज पताका,
बस  तुम  खुले  ह्रदय  के  द्धार  छोड़ दो। 


संदेसा चातक को कि आशा छोड़ दो,
पथरायी  अंखियों  की भाषा छोड़ दो,
छोर काल  के  पल  में  नप  जाते  हैं,
रे उत्साही,  सबरी  निराशा  छोड़ दो।    

  

मंगलवार, 25 मार्च 2014

आलिंगन

यह  कैसा  पूजन, आराधन  जो  छू  न  सके  तनिक  भी मन को?
वह अर्चन, वंदन क्या, जो जिह्वा पर सीमित कर दे सुमिरन को?
उस  तप  की  आंच  का  क्या,  कंचन  न  करे  जो  आचरण  को?
व्यर्थ   वह  दर्शन -  नमन,  जो  झंकृत  न  कर  पाये  चेतन  को। 

बहुत    हुआ,  अब    बंद   करो   इस   कपट   ढोंग   प्रदर्शन  को। 
मिथ्या    चीत्कार   को,     प्रस्तर   पर   मस्तक   के  घर्षण  को। 
मूल्यहीन,    बलहीन     किया   अन्तर्मन    के    अभ्यर्थन   को। 
अब    कौन    करे    उद्घोष,    करे    आमंत्रित   परिवर्तन   को?

प्रस्फुरित   करेगी   आकुल   पुकार,   नेपथ्य  के   उद्बोधन  को,
जिसकी  भी  है    सत्य   शपथ,   वह  प्रस्तुत  सागर-मंथन  को। 
विष  का  क्या,   हर   सकेगा  वह  किसी  के  आत्म-संवेदन को?
अमृत     भी     क्या    देगा,    वैरागी    मन    के   चिंतन   को?

प्रस्तुत    हो    वह,    जो    है   तैयार     समग्र     समर्पण    को,
जीवन - प्रत्यंचा      पर     साधे     श्वासों     के    स्पंदन    को। 
उत्कंठित   हो   यदि  नव - ईश्वर  के   स्वागत-अभिनन्दन  को,
फिर    बढ़    कर   स्वीकार  करो    अस्तित्व   के  आलिंगन  को। 

सोमवार, 24 मार्च 2014

क्रांति

नव-युग   में  विचारधारा  को  नित  संशोधन  चाहिये,
प्रवाह  के  संग  बहने   का  मुक्त  अनुमोदन  चाहिये। 
इसी  भीड़  में  मिल  जायेंगे  नाम  तुम्हे  मतवालों के,
विश्वास  कर  सके तुम पर वो ऐसा सम्बोधन चाहिये। 
 
भरा   हुआ   है   भावों  से,  इसे   ना  प्रलोभन  चाहिये,
निर्मल  मन  वालों  को  भी क्या  कोई शोधन चाहिये?
अन्तस्तल  के  अंधेरों  में  धवल  कांति  बिखरा  देंगे,
सूत्रधार  बनेंगे  परिवर्तन के,  स्पष्ट प्रयोजन चाहिये। 

अतुलित  इन  क्षमताओं  का  जग  को  दोहन चाहिये,
निष्ठाओं  की  बलिवेदी  पर  तनिक न  रोदन चाहिये।   
फूंको   मंतर  ऐसा  यौवन   के  इस  उत्प्रेरक  बल  पर,
मुग्ध  हो,   करे  अनुसरण;  दिव्य सम्बोधन  चाहिये।

अन्तर्मन   हो   आंदोलित   ऐसा   उद्बोधन   चाहिये,
प्रज्ञा  के  तारों   को  छू  दे,   गहन   प्रबोधन   चाहिए। 
बिखरे   हुये   इन  फूलों  से  एक  पुष्पाहार  बनाना  है,
फिर  से  गौतम  को  लाना  है  हमें  शुद्धोधन  चाहिये। 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

एक तारा

तेज़  रफ़्तार ज़िन्दगी  ऐसे  हौले  से  मोड़ती है।  
कभी सरापा लबरेज़, कभी खूं तक निचोड़ती है। 

हयात   उतरती   है   किसी  के   सीने  में   जब,
रगों  में  खून    नहीं एक  उम्मीद    दौड़ती   है। 

गेसुओं   को   अपने   चेहरे   पर   ले   आती  है,
शर्मा कर  जब  वो  खुद  अपनी  लट  ओढ़ती है।

तुम्हारी   यादें   क्या - क्या   कर   गुजरती   हैं,
दिल  थामती  हैं  तो  कभी  सांसों  से जोड़ती हैं।

वो   कहते  हैं  कि  ये  सब  शायराना  शगल  हैं,
सच  कहा,  बेख़ुदी 
हकीक़त में कब   छोड़ती है।
मैं  सजा  लेता  हूँ  गुलदस्ते  तुम्हारी  यादों  के,
फुरकत   की   आबोहवा   मेरा  दम  तोड़ती  है। 

हाशिया,   मेरे   आराम  की   बेहतर  जगह   है,
फलक   की  गहमागहमी   मुझे   सिकोड़ती है। 

तुमसे   कोई   शिकवा    नहीं   है         मुझको,
तुम्हे  छू   के  आयी  हवा  बहोत  झिंझोड़ती है।

मेरी मुठ्ठी में है टूटा हुआ तेरी पलक का एक बाल,
मुन्तज़र हूँ कि कब कहकशां कोई तारा तोड़ती है।  

बुधवार, 15 जनवरी 2014

यह देखा मैंने...


अवसान   हुआ  जब  आशाओं का, तो   रंग  तुम्हारे देखे। 
छल, छद्म, मिथ्या, प्रवंचना,  जीवन के अंग तुम्हारे देखे।

झूठी   थाप   बजाने  वाले   वक्रित  मिरदंग  तुम्हारे देखे।  
कंग  खंग  गंग  घंग  चंग  छंग,  सब   ढंग   तुम्हारे देखे।

मुख    में  राम    बगल   में  छुरी,   सत्संग   तुम्हारे देखे।
खंडित    जीवन   वाद्य   और   नर्तन   नंग  तुम्हारे देखे।

स्वप्नों  की  तो  बात  ही  छोड़ो  जो मैंने संग तुम्हारे देखे।
विस्मित  हो  सत्य  को जाना, विचार बदरंग तुम्हारे देखे।

न्यून   हुआ   नव - परिभाषित,  दायरे   तंग  तुम्हारे देखे।
संवेदित  संकेत  किये जब, प्रति-संवेदन भंग तुम्हारे देखे।

नव आस  कहाँ से जग पाती जो  मंडराते भृंग तुम्हारे देखे।
मुझको खो कर सब पाना है, अभिलाषा - श्रृंग तुम्हारे देखे।
 

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

ऐसा नहीं

कोई  मुझको  चाह  ले ऐसा नहीं।
मेरे  ग़म  की  थाह  ले ऐसा नहीं।
 
मुश्किलात  हासिल हैं  हर वक़्त,
दिल  थोड़ा  कराह  ले ऐसा नहीं।

मैं उसको चाहता हूँ दिलोजान से,
मुझको भी वो चाह ले ऐसा नहीं।

इंकलाब के ख़यालात मुझमें भी हैं,
हुक़ूमत मुझसे सलाह ले ऐसा नहीं।

सिधाई  अभी  भी  बची  है काफ़ी,
सिर्फ़  टेड़ी  ही  राह  ले ऐसा नहीं।

मेरी आँखों में गहरायी नहीं शायद,
वो मेरे दिल की  थाह ले ऐसा नहीं।

छोड़  दिया  अब  आदमी के भरोसे,
ख़ुदा हिसाब-ए-ग़ुनाह ले ऐसा नहीं।

दिक्कतें   मेरे  साथ   भी   हैं   कई,
सब  मुझसे   निबाह  ले ऐसा नहीं।

शामियाने ज़िन्दगी के उखड़ गए,
अब  कोई   पनाह  ले  ऐसा  नहीं।

मैं  भी  कुछ अपनी पसंद रखता हूँ,
जो चाहे मिला निग़ाह ले ऐसा नहीं।