रविवार, 15 मार्च 2015

ऐसी कोई शिक़ायत नहीं...


ऐसा   नहीं   कि  हमें   तुमसे  कोई  शिक़ायत  नहीं।  
पर इक इस बात से खफा होना हमारी रवायत नहीं।  

ज़िन्दगी  का  सफ़र  क्या?  चंद  रोज़  में कट जायेगा,
और ऐसा भी नहीं कि हम पर किसी की इनायत नहीं।  

हर  सिम्त  खा कर ठोकरें भी,  देंगे  ना  बददुआ कभी,
बेगैरत  भी  जी  लेंगे,  तुमसे  ऐसी कोई अदावत नहीं।  

झुक कर चलने वाला ही उठा कर सीने से लगाया जाता है,
तन   कर   चलते   रहने   में   कहीं   कोई   महारत   नहीं।  

रंगीन   ख्वाबों    का   काँच  तो  चटक    कर   टूटता  ही  है,
और इस काँच के टुकड़े से घायल होना कोई नज़ाकत नहीं।  

औरों  को  पिछाड़  कर  आगे  निकलना एक बात है,
किसी  का  सीना  चाक कर दो,  ये तो शराफ़त नहीं।  

जब  उरूज़  पर हो तो भूल जाओ, मुफलिसी में याद करो,
इसे  कोई  और  नाम  देना,  यक़ीनन  ये  मोहब्बत नहीं।  

अपने  ज़ख्मों को नुमाइश का सामां मत बनाओ ऐ शायर,
हर  लफ्ज़  जो  करे  बयां दर्द-ए-दिल  तो ये सदाकत नहीं।  


शनिवार, 7 मार्च 2015

मंथन


सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।  

जब मन में तेरे भेद भरा था, फिर न्याय का क्यूँ उल्लेख किया?
अपने  मन  के  सम्बल  हेतु क्यों  मेरा  झूठा  अभिषेक  किया? 
अपना अधिकार ही  माँगा था,  इसमें क्या कुछ अतिरेक किया?
 हमने तुम पर विश्वास किया, और तुमने आरोप प्रत्येक दिया।  
ऐसे में भी तत्पर हैं हम, तुमसे अपना सम्बन्ध अटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जिसको    चाहा    तुमने   प्रसाद    दिया,
मधु नहीं,  अमृत - कण का स्वाद  दिया,
विष ढाला प्याले में और आर्तनाद  दिया. 
हमको   जीवन  भर  का  अवसाद  दिया,
कितना   सुन्दर गढ़ा  गया इस नाट्य मंच का पटल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

मन  को मथना,  सोच - विचार  सब धोखा है,
जो नियत किया तुमने, उसको  कब रोका है? 
मिथ्या   वचनों   का    यह    खेल  अनोखा है,
दोष विधाता को दे दो, क्या अद्धभुत मौका है।  
खुद को पावन प्रस्तुत करना कितना सहज सरल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

जब देव - अदेव का भेद किया  तब  चिंतन को क्या शेष बचा?
गुण-अवगुण जब निश्चित हैं, तब मंथन से क्या सन्देश रचा?
जब  पहले  से  बलिहारी  हो,  फिर क्यों भरमाते हो वेश सजा?
अमृत-घट उनको ही दे दो , मेरे पलड़े में तुम दो विद्वेश बढ़ा।  
भाव मथे जिस ह्रदय में तुमने वह पत्थर है, मंदराचल है।  
सागर मंथन का क्या? वह तो बस कोरा छल है।

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

इस बार होली में.......


पुराने   उन   सारे  वादों  को,
खट्टी - मीठी सबरी यादों को,
उजले दिन, सुहानी रातों को,
कही-अनकही सारी बातों को,
इस  बार  होली  में  सब  कर  दिया  दहन मैंने।    

जीवन में  जो भी अब अभिव्यक्त  हो,
शुष्क   हो,  आर्द्र, शीतल  या तप्त  हो,
भग्न हो, बिखर जाये कि विन्यस्त हो,
यह मेरा प्रारब्ध , तुम इससे मुक्त हो।  
इस   बार   होली   को  एकला   किया  वहन मैंने।  

जीवन    के   विराट  से  कुछ  कण बीन लाने हैं,
ईश्वर   भी   राह   रोके,  वह  क्षण छीन लाने हैं,
साहस, संकल्प, संयम, जीवन के तीन माने हैं, 
काल की गति वही जो हम कर्म में लीन ठाने हैं। 
इस  बार  होली में  भाग्य  का  कर  दिया ज्वलन मैंने।  

विधान  स्वयं  गढ़ेंगे,  त्रिकाल हम पढ़ेंगे,
चौसर  का  खेल  बंद, अंधता नहीं सहेंगे,
तेग  पर   धार  देंगे,  भविष्य नया रचेंगे,
    उऋण होने हेतु ही जीवन पथ पर चलेंगे।    
इस  बार  होली  पर  यह  व्रत  किया  वरण  मैंने।