शनिवार, 2 जनवरी 2010

जयघोष!

ज्वारहीन सागर की लहरें उतर रहीं ढलान पर,
कौमुदी भी नहीं रही अब उस उफान पर,
शांत है धरा, हलचल नहीं कुछ भी आसमान पर,
अतीत जैसे थम गया हो आ के वर्तमान पर।

काल चक्र मोड़ दो, मिथक तुम ये तोड़ दो,
प्रारब्ध एक छल है, छल ये तुम छोड़ दो,
भ्रम की टहनियों को आज तुम मरोड़ दो,
पवन की गति से फिर अपनी लय जोड़ दो।

वेगवान उस रथ पर तुम ऐसा व्यव्हार करो,
मुदित हों दिशा सभी हर स्वप्न साकार करो,
लक्ष्यों को वेध दो, अवरोधों को पार करो,
निस, दिन, मास, बरस, ये काज बार बार करो।

कुछ भी अप्राप्य नहीं, हो जो दृढ निश्चय,
हर नूतन तरंग को होती, अर्पित है एक विजय,
तट पर हों या मध्य-लहर, क्यूँ हो कोई भय?
प्रहार करो, वरण करो और उद् घोष करो जय।

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