गुरुवार, 23 दिसंबर 2010
श्राप
यत्न करे तू कितने भी,
यह भवंर-जाल कब है थमा?
तू कितने भी चाँद उतारे जा,
हर निशा है तेरी एक अमा।
तेरे नक्षत्रों की गणना को,
कोई योगी क्या झुठलायेगा?
यह जन्म है तेरा इसी निमित्त-
तेरा अस्तित्व? तू देह-धर्मा।
यह श्राप न होगा अब क्षमा।
कब सुध बुध खोयी मैंने,
कब मैं इस भ्रम में रमा?
मुझको ना सुधि रंच मात्र भी,
छिनी कब मेरी जीवन-ऊष्मा?
मैं सहज भाव धरता गया,
मैं रुका न तनिक चलता गया।
क्रूर काल का हास विद्रूप-
मैं चकित हुआ, ठिठका सहमा।
यह श्राप न होगा अब क्षमा।
किस हेतु जगत का उजियारा?
जब तम हो घिरा मेरे मन-मा।
उस पग की थिरकन का क्या?
जो मचले दूर किसी बन-मा।
सच से सच टकरायेगा,
हो खंडित, अखंड पद पायेगा।
मैं अधीर-मति समझ न पाया-
यह कर्म-फल मुझसे ही जन्मा।
यह श्राप न होगा अब क्षमा।
नहीं मनन का विषय कदापि,
दोष नहीं तेरा यह प्रथमा।
कितने तप हैं भंग हुये,
रंभा, उर्वशी, मेनका, तिलोत्तमा।
अपराध-बोध है एक तिलिस्म,
मत खोलो इसका तुम द्वार कोई।
हँस कर तुम यह ग्रहण स्वीकारो,
ग्रहण करो यह प्रसाद कर-मा।
यह श्राप न होगा अब क्षमा।
शनिवार, 27 नवंबर 2010
गम
आये हैं मेहमां मैं पलकें बिछा लूं।
दिखता नहीं कुछ ये कैसा असर है,
आँखों के भीतर नज़र ही नज़र है।
देखूं जिसे वो नज़ारा नहीं है,
दिखता है जो वो हमारा नहीं है।
ढूँढो ऐ नज़रों उन्हें पास लाओ,
हालत पे मेरी ना तुम मुस्कराओ।
उठने दो गम और उमड़ने दो आंसू,
आये हैं मेहमां मैं पलकें बिछा लूं।
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
पाश
मन के उस छोर से,
बंधन चहुँ ओर से,
निस तक भोर से,
एक विचित्र पाश है।
चांदनी चकोर से,
झूमते हैं मोर से,
सशंकित चोर से,
बोलते न ज़ोर से,
यह विचित्र आभास है।
बरसे घन घोर से,
बरखा सब ओर से,
बज रहे ढोर से,
मद झरे पोर-पोर से,
यह विचित्र उल्लास है।
फिर डरे सब ज़ोर से,
भय आया हर ओर से,
दिन हारा तम घोर से,
अब आशा बस भोर से,
यह विचित्र त्रास है।
रविवार, 19 सितंबर 2010
अभिनन्दन!!
मादक श्रृंगार, आकुल पुकार, करत प्रतीक्षा चितवन।
उत्तप्त आस, अनल ह्रदय में, अधर नहीं ये स्यंदन,
आ प्रिये! दूँ मैं शीतलता श्वासों में मेरी चन्दन।
अंतर्ज्वाला कि शांति का समाधान बस अंतर्मन,
हो कर एकाकार प्रियतमे, करें प्रेम का वंदन।
देखा ही है अब तक कुसुमों पर भ्रमरों का गुंजन,
साक्षी इसी प्रतीति के बन जाने को करता मन।
बेला मिलन की, ऋतुराज का सम्मोहक निमन्तरन,
आ चित्रित करें जीवन्तता को उकेर कर चुम्बन।
यात्रा का अंत नहीं, यह तो बस प्रथम अंकन,
समाधि तक पहुँचायेगा, सम्भोग का अभिनन्दन।
रविवार, 29 अगस्त 2010
नींद
नींद मुझे कब आती है?
नयनों से दूर है उसका वास,
किंचित नहीं स्वप्निल आभास,
बस एक अकेला मन मेरा,
एक स्मृति जिसमे भरमाती है।
नींद मुझे कब आती है?
मैं दिन भर चलता-फिरता हूँ,
हर क्षण में सौ पल गिनता हूँ,
किन्तु समय कि रेखा तो,
बस दूरी ही और बढाती है।
नींद मुझे कब आती है?
हर सहर मैं जाता नयी डगर,
आशाओं की झोली भर-भर,
फिर लम्बी हो जाती परछाई,
दिन ढलता रात आ जाती है।
नींद मुझे कब आती है?
इस बार करूंगा फिर प्रयास,
सपने बुन लूँगा आस-पास,
अँधियारा तो छाया है,
पर दृष्टि दूर तक जाती है।
नींद मुझे कब आती है?
सुख की घड़ियाँ, दुःख का त्रास,
नहीं तुषार, पर ज्वलंत प्यास,
नीर चक्षु से निकले तो भी,
अब आग कहाँ बुझ पाती है।
नींद मुझे कब आती है?
रविवार, 11 जुलाई 2010
संकेत
क्षरित है प्रेम की भाषा।
अहं, अभिमान, दर्प, घमंड,
सब उसी का है दंड।
थिर हो गए हैं अपने पाँव,
पड़ाव है ये, या ठहराव।
स्वप्न ही स्वप्निल हो गए,
सच्चाइयों में दब के खो गए।
नीर भरे दृग का क्या?
मृगया में मृग का क्या?
रच सकोगे नयी सृष्टि फिर?
मिल सकेगी नयी दृष्टि फिर?
कोपल से फूटी पहली उमंग,
सद्यः स्नात वो नयी तरंग।
जो दे यदि इन किनारों को पाट,
खुल सकेंगे क्या बंद कपाट?
या सोख लेगी इन्हें किनारे की रेत?
सखी! कुछ तो करो संकेत।
रविवार, 20 जून 2010
नज़र
हमें तुमसे कोई गम नहीं।
मिटने दो आरजुओं को,
वफ़ा नहीं, कसम नहीं।
तुम्हारा मुझ पर करम नहीं,
याद मुझे कोई सितम नहीं।
हम ही हार जाते हैं लो,
आज किसी पर जुलम नहीं।
अब रास्तों का भरम नहीं,
मंज़िल हमारी तुम नहीं।
किन आंसुओं से रोवोगे,
दीन नहीं, धरम नहीं।
वादे वो अब कायम नहीं,
इसका कोई मातम नहीं।
हम ही बहक गए थे दोस्त,
गलत तुम्हारे कदम नहीं।
सफ़र-ऐ-ज़िन्दगी अभी ख़त्म नहीं,
तमन्ना जीने की भी कम नहीं।
तमाम नमी अभी आँखों में हैं,
पीने को ख़त्म शबनम नहीं।
बुधवार, 12 मई 2010
अस्तित्व
साथी ये टूटे-फूटे पाल।
ये बिगड़-बिगड़ उठती लहरें,
फैलती देखो कैसा जाल।
तिस पर भी बढ़ता उसकी तलाश में,
घिर-घिर रहा पर जग के पाश में।
फिर भी ढूँढ रहा उसको मैं,
पेड़ों, पौधों, पत्तों, पलाश में।
दामिनी सहसा लगी दमकने,
घिर कर बादल लगे बरसने।
उठीं मेरे अंतर में लहरें,
दिल फिर मेरा लगा धड़कने।
उल्टी-पल्टी जाती नाव,
निकट किनारा दूर है गाँव।
कल नहीं आज अभी तत्काल,
पा लेनी है वह अमर छाँव।
वह छाँव जहाँ है सुख परम,
वह ठौर जहाँ आनंद चरम।
अनुभूति उसी की है अब करनी,
तोड़ इस स्वर्ण-हिरन का भ्रम।
पहुंचा जब मैं उसके द्वार,
हुए कम्पित मन के तार।
रूप स्वरुप विराट अनुपम,
मेरे सम्मुख सारा सार।
शीश झुका किया शत-शत नमन,
माँगा आशीष मन ही मन।
समझा मैंने सन्देश वह शाश्वत,
अस्तित्व हमारा पल्लवित सुमन।
रविवार, 18 अप्रैल 2010
काल!
वह वैधव्य,
कितना भव्य।
एकांत कि महत्ता,
स्वयं की सत्ता।
रिश्ते और नाते,
सब पुरातन बातें।
सहारा नहीं, न कोई बंधन,
झूठे आदर्श, मिथ्या स्वावलंबन।
भ्रम का एक जाल,
बुनता है काल।
आती नहीं फिर,
हो जाती स्थिर।
बना देता हर ध्वनि को,
वह अ-श्रव्य।
काल! तू बड़ा अधम है।
न कोई सवेरा,
मेरा या तेरा।
लगता पुकार,
या करता साकार।
उन प्यारे सपनों को,
नेह भरे वचनों को।
जिन्हें ढाला था हमने,
मैंने और तुमने।
अपने जीवन में,
प्रणय के इस घन में।
बरस कर बिखर गया जो,
एक आघात में छितर गया जो।
बस पीड़ा का आभास,
खंडित सब प्रयास।
सहजता से किया विस्मृत,
वह कर्त्तव्य।
काल! तू बड़ा अधम है।
पग-पग तू बढ़ते जा,
सोपान नए चढ़ते जा।
स्वयं से भागे जा,
जा तू और आगे जा।
न तिमिर, न प्रकाश,
अधकचरा विश्वास।
वह सिन्दूरी अभिलाषा,
मन अब भी प्यासा।
बढ़ाये थे चरण जहाँ,
नीरव एक वन वहां।
जहाँ सन्नाटा छाया है,
ना पहले कोई आया है।
निर्मित की अपनी,
एकाकी नगरी।
क्या सोचा यही था?
क्या यह सही था?
क्या तेरा सदा से था,
वह गंतव्य?
काल! तू बड़ा अधम है।
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
घुड़सवार कुत्ता
एक था कुत्ता,
नाम था रॉकी,
बनना चाहे
बढ़िया जाकी।
मिला उसे एक
सरपट घोड़ा,
चढ़ा पीठ पर
मारा कोड़ा।
ले कर उसको
घोड़ा दौड़ा,
तब ही उसने
घोड़ा मोड़ा।
मुड़ कर घोड़ा
संभल न पाया,
कूकर जी को
वहीँ गिराया।
गिरते ही -
कुत्ता घबराया,
फिर न शौक
उसे चर्राया।
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
एहसास
अभी तक कहाँ थी वफ़ा की ये बातें?
गुमनाम था सब कैसी मुलाकातें?
एहसास हुआ है उनको नया-नया कुछ,
फिर रहे हैं अब वो नज़रें चुराते।
मासूम थे बहुत पर अब हैं सितमगर,
चले जाते हैं अब क़यामत ही ढाते।
ख्वाब उमड़ते हैं, शोले सुलगते हैं,
बढे जा रहे हैं वो जलते-जलाते।
कोई पूछे बदली हुयी है क्यूँ चाल,
चलते हैं अब वो क्यूँ लजाते-लजाते?
अब तक तो दायरा-ए-ख़ामोशी ही थी,
ठुमकते हैं अब वो गाते-बजाते।
ठहर जाती ज़िन्दगी इस मुकाम पर काश,
संग आपके हम भी हँसते-हंसाते।
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
नयी सदियाँ
अनसुलझी कुछ कड़ियाँ हैं।
कही-अनकही एक-दो बातें,
ठहरी हुयी सी घड़ियाँ हैं।
एकाकी कुछ बतियाँ हैं,
स्मृति की फुलझड़ियाँ हैं।
झुकी कमर को दिये सहारा,
अन्त समय की छड़ियाँ हैं।
कुंठायें औ' विकृतियाँ हैं,
कैसी ये आकृतियाँ हैं?
रंग रहा न जीवन में,
आह! विकट स्थितियां हैं।
क्षीण सभी प्रस्तुतियां हैं,
मलिन मनस-अभिव्यक्तियाँ हैं।
प्राण सींचता नहीं कोई अब,
दंश बांटती सर्पिणियां हैं।
थिर संवेदित ध्वनियाँ हैं,
भ्रमित-चकित रागिनियाँ हैं।
अश्रु सूख गए बंद चक्षु में,
युग बदला नयी सदियाँ हैं।
सोमवार, 18 जनवरी 2010
आशा..
स्वरहीन प्रणय की भाषा है,
बलुका में हैं चित्र उकेरे,
करतल ध्वनि की आशा है?
हारी हुयी एक प्रत्याशा है,
खंडित-भंजित हर आशा है,
ढाला हमने स्वयं ही जिनको,
उन विपदाओं ने नाशा है।
जीवन संघर्षों की अभिलाषा है,
क्रूर नयी यह परिभाषा है,
एक रक्तबीज है प्रतिस्पर्धा,
और संहार युद्ध की भाषा है।
हर पल में एक निराशा है,
उससे निकली शत-आशा है,
चौरस्ते की चौपड़ पर, हाथ तेरे
नव-जीवन का नव-पासा है।
बुधवार, 13 जनवरी 2010
मकर संक्रांति !!
पर्व सूर्य का।
सूर्य का उदय तो ठीक,
पर अस्त किसका?
यदि उदय है,
तो
अस्त अवश्यंभावी है।
संभवतः,
संभावनाओं का उदय
और उनका ही अस्त।
जन्म-मृत्यु,
दिन-रात,
उत्थान-पतन,
सब उदय और
अस्त ही तो है।
मकर संक्रांति!
पर्व संभावनाओं का।
धूमिल पड़ती आशाओं का,
अज्ञात परिणामों का।
एक निर्निमेष गवेषणा
अनंत भविष्य में।
खोज,
एक गवाक्ष की।
जो,
दृष्टिगोचर करे
भविष्य को चक्षुओं के सामने;
अथवा
दे अंतर्दृष्टि,
जो करे अंकित मानस पटल पर,
चित्र समाधान के।
दे शक्ति
विवेचन की,
चिंतन की,
मनन की।
हा !
लगता नहीं ध्यान।
बाहर तो विदित है,
भीतर भी मनुष्य
व्यस्त ही तो है।
मकर संक्रांति!
पर्व समर्पण का।
यह सूर्य का
समर्पण ही तो है।
सर्वत्र किया प्रकाश,
स्वयं को जला कर।
वो
पग-पग
बढ़ रहा
ब्रम्हांड के अंधकार में।
किन्तु,
निरंतर छोड़ रहा
किरन आलोक की।
सब कुछ
निर्माता की कल्पना के अनुरूप
सु-विन्यस्त ही तो है।
मकर संक्रांति!
पर्व उद्देष्यों की पूर्ति का।
सूर्य की भांति
सत्य के आत्मसात का।
प्राप्ति का,
पूर्णता का,
समागम का,
संगम का।
बंध तोड़ कर भावनाओं के,
विलीन कर,
निहित कर,
समाहित कर।
सत्य के प्रवाह में,
अर्पित कर
स्वयं को,
समक्ष विधाता के।
तू तो निमित्त मात्र है,
किसी ध्येय का।
कर सबल स्वयं को इतना,
हों ध्येय पूर्ण समस्त।
अन्यथा क्या जीवन?
सब उद्देष्य
ध्वस्त ही तो हैं।
मकर संक्रांति!
पर्व प्रकाश का।
प्रदीप्त कर स्वयं को,
दैदीप्य कर जगत को।
मेरा जगत?
मैं स्वयं।
मेरे भीतर?
सारा ब्रम्हांड।
अंतर्दृष्टि की किरण
ही तो फूटेगी,
जब होगा
सारा अंतरिक्ष दैदीप्यमान।
आ!
लगाता हूँ मैं पुकार प्रियतम!
की थी,
प्रदक्षिणा अग्नि की।
क्यों?
न हो अंधकार ह्रदय में कभी।
कैसा अन्धकार?
दुर्भावना, संकुचन, कोप,
अपूर्णता, अन्मयस्कता, तटस्थता,
छद्म, द्वेष, अहंकार।
सब अंधकार।
एक सम्बन्ध,
दूसरे से
संत्रस्त ही तो है।
मकर संक्रांति!
पर्व सूर्य का।
तमसो मा ज्योतिर्गमयः
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
एक पल सोच लो...
किसी के जाने का,
नहीं कुछ ग़म हमें,
बीते अफ़साने का।
ज़रा सी तमन्ना पर
यूँ बिगड़ जाना भी क्या?
गुनाह कुछ मेरा नहीं,
कुसूर मौसम मस्ताने का।
एक पल सोच लो हमसे जुदा होने से पहले।
कुछ कमाल निगाह का,
कुछ उस ठंडी आह का।
बुधवार, 6 जनवरी 2010
विषाक्त !!
सौम्य नहीं वह प्रवाह मुझमे,
हर वेग उठाता एक कराह मुझमे।
मैं सब शोषित-पोषित कर सकता हूँ,
अति अगाध वह थाह मुझमे।
हर मंथन एक ज्वार उठाता है,
एक सागर सा है लहरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।
मेरी त्रुटियों का संजाल,
हर पल आहत करता काल।
मैं विकल काल के गाल समाऊँ,
कुछ आशायें, स्मृतियाँ बन जातीं ढाल।
प्रतिशोध उगाता फिर अमरबेल,
एक वन-प्रदेश सा बनता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।
मुझमे विरोध विकराल भरा,
मैं पुष्प नहीं, कंटक खरा।
तार-तम्य काज अति दुष्कर,
उठता एक दावानल गहरा।
झुलसे तन-मन पल-पल फिर,
अंगार भरा घन घुमड़ता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।
आशीष वचन सब श्राप बने,
मंत्रोच्चार कटु प्रलाप बने।
ग्रहण नहीं वह अमिट कलंक था,
क्षणिक शीतलता जीवन का संताप बने।
ज्वालामुखी विस्फोट करे जो,
वह लावा सा है तिरता मुझमे।
रक्त नहीं विष बहता मुझमे।
सोमवार, 4 जनवरी 2010
इतना ही...
अभी क्यूँ करता मेरा दिल रोने को।
तमाशे बाकी हैं अभी बहुत होने को।
अभी तो बस तुझे गले से लगाया था,
ज़िन्दगी में काफ़ी कुछ बचा है खोने को।
नज़रें उठा कर क्या देखें तुम्हे हम,
आँखों में बचा नही पानी भी रोने को।
घुटनों से पेट को दबा रखा है बामुश्किल,
कैसे कह सकते हो अभी तुम हमें सोने को।
अब दर्द मे कराह कोई निकले क्यूँ,
खून भी कहाँ बचा ज़ख़्म धोने को।
हमारे हाथ भर गये छालों से, लेकिन
नफ़रत के अँगारे फिर भी बचे हैं बोने को।
हसरतें कब तक तुम इसमे सजाओगे,
अब तो छोड़ो माटी के इस खलोने को।
पिछली यादें हमको ज़रा भी नही सताती हैं,
रौंद कर निकले थे हम उस सपने सलोने को।
शनिवार, 2 जनवरी 2010
जयघोष!
कौमुदी भी नहीं रही अब उस उफान पर,
शांत है धरा, हलचल नहीं कुछ भी आसमान पर,
अतीत जैसे थम गया हो आ के वर्तमान पर।
काल चक्र मोड़ दो, मिथक तुम ये तोड़ दो,
प्रारब्ध एक छल है, छल ये तुम छोड़ दो,
भ्रम की टहनियों को आज तुम मरोड़ दो,
पवन की गति से फिर अपनी लय जोड़ दो।
वेगवान उस रथ पर तुम ऐसा व्यव्हार करो,
मुदित हों दिशा सभी हर स्वप्न साकार करो,
लक्ष्यों को वेध दो, अवरोधों को पार करो,
निस, दिन, मास, बरस, ये काज बार बार करो।
कुछ भी अप्राप्य नहीं, हो जो दृढ निश्चय,
हर नूतन तरंग को होती, अर्पित है एक विजय,
तट पर हों या मध्य-लहर, क्यूँ हो कोई भय?
प्रहार करो, वरण करो और उद् घोष करो जय।